19 जनवरी, 1990!
तब कश्मीर में
आतंकपरस्तों के द्वारा
नृशंस हत्याएँ हुईं,
बलात्कार हुए,
हमारे देशवासी अपने देश में ही
लाचार, निर्वासित हुए
क्योंकि वे हिंदू थे;
यों, कश्मीर की पीर का
नया रक्तरंजित अध्याय शुरू हुआ।
प्रजातंत्र के यंत्र-तंत्र-मंत्र खोये रहे,
सब गुप्त-सुप्त-लुप्त, मत्त-उन्मत्त रहे,
विधि-विधान-संविधान
सभी धर्म से इतने ‘निरपेक्ष’ हुए
कि व्यवस्था-संस्थाओं की ओर से
बिलकुल शून्य हस्तक्षेप हुए;
तिरंगा के तीनों रंग
फीके, अनमने, बेसुध रहे!
मगर, किसी ओर
संवेदनाओं के सुर सजे नहीं,
मानवता की बाँगें चढ़ी नहीं,
सूफ़ी संतों की जीभें हिली नहीं,
किसी दीया की कोई लौ
कहीं जली नहीं!
प्रार्थनाएँ स्तब्ध, असहाय-निरुपाय हुईं,
देवता, नायक, प्रबुद्ध मौन पत्थर हुए।
हमारे मानचित्र को
रक्त के धब्बे धिक्कारते रहे,
चौहद्दी को चुनौतियाँ मिलीं,
देश अपने मन में ही
अंगहीन, शीशविहीन,
असंयुक्त, त्यक्त- परित्यक्त हुआ!
वो दिन टटोल रहा है
देश की छाती में
अपना परिचय, अपना व्यक्तित्व,
अपनी अस्मिता, अपना संस्कृति-संचय,
अब तक!
- सतीश,
13 Feb, 2021
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