सागर के मन में

लहरें  

प्रसन्न भाव से गुजरती हैं

 ‘भाटा’ होने के अनुभव से ,

और, सुयोग-संयोग के प्लावन से

वे जानती हैं,

‘ज्वार’ बनना भी!


लहरें

बार-बार उठती हैं,

बार-बार गिरती हैं,

उन्हें चढ़ने-फिसलने का भाव नहीं,

ऊपर-नीचे का ग्रास नहीं। 


सजे-धजे, सुघड़ बने,

या, बेडौल उछल चले? 

बूँदों-बुलबुलों से मिले,

या फेनिल विस्तार बने? 

या, नैसर्गिक उमंग से उठकर

सागर का उत्थान बने? 

इसकी अभिलाषा-ग्रंथि नहीं,

इसकी मंशा-व्यथा नहीं,

इसकी चिंता-पीड़ा नहीं।

हर स्वप्न को पढ़-लिख ले,

हर डग-पग को नाप-भाँप ले,

जीवन के ऐसे मूल्य-बोध नहीं!


थमे हुए सागर के मन में 

लहरें ऐसी मदमाती हैं;

महाविराट समुद्र-शरीर में,

साँसें उनकी लहराती हैं! 


-सतीश 

 August 1, 2021. 








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