हिमालय


अपने शरीर पर

विराट, तीक्ष्ण हिम को लेकर भी 

तू सिहरता नहीं, ठिठुरता नहीं,

सकुचाता नहीं, झुकता नहीं;

 तू योग-भाव से आजीवन  निरत  है,

उत्तुंग, उदात्त, धवल बने रहने में;

तू उदासीन, निष्ठुर सत्ता नहीं,

महिमा-विलीन व्यक्तित्व नहीं,

कठिन जड़ इकाई नहीं,

कर्तव्य-विमुख अवयव-अस्तित्व नहीं।

उन्नत शीर्ष पर विश्व-नाथ को बिठाये,

प्राण-ह्रदय में पावन गंगा को बसाये,

विविध कंदराओं-कुंडों, घाटियों-चोटियों, 

लघु-विशद श्रृंखलाओं को समेटे,

सभ्यता-संस्कृति-धामों को धारते-पालते हुए,

तू है प्रकृति-नियोजित, एकनिष्ठ-एकलय,

है कर्म-प्रवीण, तू, शक्ति-संप्रभु,

हे हिमालय! 


सतीश

Sep 17, 2021. 






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