जंतर-मंतर

जो फैल नहीं सकते,

वे हमारा फलक बनाते हैं,

जो अपने को गढ़ नहीं सकते,

वे  कुम्हार बनें है,

जो स्वयं को ढूँढ़ नहीं सकते,

वे भविष्य की रेखाएँ बताते-बनाते हैं ।


प्राय:, विरोध सकर्मक नहीं, सकारात्मक नहीं,

निरर्थक प्रतिरोध-अवरोध है,

आलोचना में लोच नहीं;

कहीं संवाद नहीं,

चारों ओर, वाद-विवाद, 

अराजक तर्क-वितर्क-निनाद है,

अधिकांशतः, झूठ के ग्रह-तारे

‘सत्याग्रह’ में लीन हैं! 


और, इधर, 

हम स्वकेन्द्रित सोच से ग्रस्त हैं,

अपने हेतु में नाहक अस्त-व्यस्त हैं।

हमारे प्रजातंत्र का यही ग्रहण है,

यही भूल-भूलैया, जंतर-मंतर है। 


-सतीश 

Sept 29, 2021. 


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बहुत बार

ऐ हिम, तुम मानव हो क्या?

क्या करूँ ईश्वर ?