ये अरि-वृंत

 समय साक्षी है -

सत्ताओं को समय-असमय लग जाती है,

कानों पर मोटे मफ़लर चढ़ाने की आदत!

बहरी होकर वे सही व्यवहार भूल जाती हैं,

फिर, अन्यमनस्क, विक्षिप्त हो जाती हैं!


उन्हें डर लगता है 

सच से ही नहीं, सच के पोस्टरों से भी;

प्रजातंत्र की पवित्रतम संस्थाओं में 

उनकी राक्षसी हँसी सभ्यता की दिवारों से 

टकराती हैं और

क्रूर  चुनौती देती है 

मान, मर्यादा, व्यवस्था को, मानवता को !


चुनौती! क्योंकि उन्हें भय है कि 

सच की विभा उन्हें ढँक देगी,

किसी सूरज की ओज भरी किरणें 

उन्हें तिरोहित कर देंगी,

सजग जनता के समर्थन का प्लावन 

उन्हें दूर फेंक देगा - 

अनस्तित्व की ओर! 


किसी भी काल-क्षेत्र में,

किसी भी भूमि-खंड में,

ऐसे व्यक्तित्व 

सुंदर  “अरविंद” नहीं होते,

वे उच्च भावों, सुंदर संवेदनाओं, 

सभ्यता-संस्कृति के अराजक अरि, 

अरि-वृन्त होते हैं! 


संदर्भ  32 वर्षों के सच का हो, 

या शताब्दियों के सत्त्व का,

भूल जाती हैं कुंठित सत्ताएँ कि

इतिहास की क्रूर आहटों में 

वे निर्मम रूप से भूला दी जाती हैं;

चाहे-अनचाहे, 

यही है प्रकृति का पुरातन शील,

स्वाभाविक नियोजन, नियमन, प्रयोजन !


सतीश 

27 March, 2022. 


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