हमारे गरीब, हमारे मज़दूर !

तुम्हारे पेट की आग से क्रांतियों की कोख़ें फूली-फली हैं,

तुम्हारे सीने के पसीने से सभ्यताएँ सींचीं गई हैं,

तुम्हारे हाथ की रेखाओं से दुनिया की तक़दीरें बदली हैं,

तुम्हारी जीभ की गति से शासनों की मति डोली है,

तुम्हारी पीठ पर नायकों-महानायकों की उपलब्धियाँ चढ़ी हैं,

तुम्हारे माँस की बोटी-बोटी से

व्यवस्थाओं-सरकारों-सत्ताओं को सेहतमंद माँसपेशियाँ मिली हैं,

तुम्हारे जीवन को पाकर कविताएँ-कहानियाँ विशद-ऊँची हो गई हैं,

तुम्हारे भाल पर चढ़कर मानवता ऊपर चढ़ी है! 


पर, तुम अब तक भूखे-नंगे हो,

सुख-साधनहीन, सम्पदा-विहीन हो,

तुम्हारे जीवन को मामूली माँसलता भी नहीं मिली!


मानता हूँ, प्रजातंत्र सबसे मान्य व्यवस्था है; 

पर, अबतक,

प्रजातंत्र की राहों में तुम्हारी कराहें बिछी हैं,

प्रजातंत्र के शरीर पर तुम्हारी सिसकियों-आँसुओं के धब्बे पड़े हैं,

प्रजातंत्र के गले में तुम्हारी हिचकियाँ अटकी हैं, 

प्रजातंत्र के चेहरे पर तुम्हारे पैरों के छाले पड़े हैं! 


तुमने मंदिर-मस्जिद-गिरिजाघर बनाये,

तुमने पंडित-मोमिन-पादरी बनाये,

तुमने मठ-मठाधीश बनाये,

तुमने दुनिया भर में धर्म, ईश्वर, ईश्वर के चेहरे बनाये।

पर, दुनिया भर के संत, नायक,

      दुनिया भर के धर्म,

      दुनिया भर के ईश्वर 

मिलजुल कर भी तुम्हारा जीवन नहीं बना पाये,

तुम्हारा चेहरा नहीं बदल सके।


नियति की सुंदर परिणति से

तुम अब भी बहुत-बहुत दूर हो, मजबूर हो,

ग़रीब हो, मज़दूर हो! 


-सतीश 

May 17, 2020. 


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