ओस
ओस
-
पूरब का क्षितिज
नये-नये स्वप्न से जागृत !
हर्ष-तरंगों से भरी भोर के
लाल-लाल कपोल !
आसमान की नीली-नीली, स्वच्छ,
पावन भावनाओं की टोह लेती
फुदकते खगों की टोली!
इधर, फूलों—पत्तियों पर सहर्ष लेटी ओस की बूँदें!
मन बुदबुदाने लगा कि
ये ओस की बूँदें क्या हैं?
रात-भर नकारात्मक शक्तियों से जूझती
प्रकृति का कर्म-स्वेद?
सुबह को कर्मपरक रहने हेतु
मिला आकाश का आशीष-जल?
भोर को भेंट में मिली
रात के ह्रदय की सुंदर भावनाओं की नमी?
ओस की बूँदों का वलय,
है कर्म-चेतना का मनभावन संचय!
ओस-कण के केंद्र में है
उसकी नियत की स्वच्छता!
उसकी परिधि पर आसीन है,
कर्म-तल्लीन कामनाओं की पारदर्शिता!
ओस की तरलता फूलों में समाती,
उन्हें शक्ति-प्रेरणा, सजलता देती
ताकि दिन की तपतपाहट को झेल-झेल कर भी
फूल अपनी सौंदर्य-सुरभि को बनाये रखें !
प्रकृति की कर्मठता के श्रम-विंदु,
ये ओस की बूँदें!
-सतीश
28 Nov, 2020
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें