मोम सा
मोम सा
क्यों न मैं
परत-दर-परत
या कभी बे-परत भी
सीधे-सादे मोम-सा पिघला करूँ
निर्द्वंद्व,चुपचाप बह जाया करूँ!
यों कभी मन के निर्विकार कोने में,
जग के सुंदर दोने में
थोड़ी आत्म-आभा से जला करूँ
श्वेत-श्याम लहक से उजला करूँ-
कुछ लीन, कुछ विलीन होकर!
लोग उसे पिघलना कहेंगे?
या फिर जमना कहेंगे?
-सतीश
दिसम्बर 20, 2024
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