बचपना

बचपना


कभी धरती पर पाँव टिकाती,

कभी बाँहों को तानती, 

गर्दन को ऊँचा उठाती,

कभी फुनगी से लटकी,

कभी कोमल डालियों पर अटकी,

पर्वतों,आसमानों को पा लेने की इच्छाएँ,

जीवन को हँसते हुए पढ़ लेने की आशाएँ,

हवाओं को साधने,

वादियों को साँसों में बाँधने की प्रकृति!-

कहते हैं इसे बचपना

भोली-भाली बचपना! 


सतीश 

मई 16, 2024

मुज़फ़्फ़रपुर 




टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बहुत बार

ऐ हिम, तुम मानव हो क्या?

क्या करूँ ईश्वर ?