तुम !
तुम !
तुम भोर हो, भोर की कल्पना भी हो,
तुम विस्तृत क्षितिज हो, क्षितिज की उभरती संभावनाएँ भी हो,
तुम पहली-पहली धूप हो,
धूप की सुलगती, सुलगाती उष्मा-सुषमा भी हो,
तुम फुदकती चाँदनी हो,
चाँदनी की सुंदर थरथराहट भी हो,
तुम रागिनी हो, रागिनी की शील-संवेदना भी हो,
तुम दूर-दूर तक पसर जाने को आकुल
फूल की महक हो,
महक की नैसर्गिक ललक, एक बेचैन लहक भी हो!
तुम समय की अविरल कथा, कथा का अनासक्त सत्त्व,
सत्व की चिर निनादित गूँज भी हो!
तुम!
⁃ सतीश
फ़रवरी 23, 2024
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें