बौद्धिक भ्रष्टाचार
आये दिन,
पत्रों-लेखों-प्रलेखों में
विचारों-वादों की क़वायदें,
तर्कों-तथ्यों की होड़-तोड़-मरोड़,
दर्शन-शास्त्र-विशेषज्ञता की आपाधापी,
पूरे वेग-संवेग से,
पूरी घूर्णन-शक्ति से
क्रियाशील रहती हैं ।
परिवर्तन के छद्म श्लोक पढ़े जातें हैं,
प्रज्ञा-प्रवचन के चतुर पैंतरे पेश होते रहते हैं,
यों, व्यवस्था के बौद्धिक नायकों-पंचों के
प्रवीण प्रपंच जारी रहते हैं ।
गोष्ठियों-सम्मेलनों-मंडलियों-आंदोलनों में
विचारों-विवरणों-वर्णनों-व्योरों के
सजे-धजे गुंफ-गुच्छ
सामने आते रहते हैं ।
बुद्धि के समर्थ खिलाड़ी-व्यापारी
ग़रीबों-मज़दूरों-किसानों के
नारे लगा-लगा कर,
जन-कल्याण के पवित्र कुंड में नहा-नहा कर,
स्वार्थ-फसल की तंदुरुस्त क़ीमत
वसूलते रहते हैं ।
स्वत्व के संकीर्ण अर्थों में समाकर,
जीवन-मूल्यों से भटक कर,
शिक्षा-शील की चादर ओढ़-ओढ़ कर,
बौद्धिकता का यह निर्मम खेल
हमारे समय-युग का
सबसे शातिर भ्रष्टाचार है -
अपने आकार-प्रकार-आयाम-असर में ।
रोज-रोज के जीवन में,
आम तौर पर,
बौद्धिक-वर्ग इस भ्रष्टाचार का सक्रिय पोषक है,
रचनाकार-भागीदार, विषैला वाहक भी ।
स्वार्थलोलुप प्रपंचों की नृत्यशाला में
बुद्धिजीवी अर्द्धनंगे-नंगे हैं, -
फिसलते मूल्यों, सिकुड़ती नैतिकता के साथ,
विकारपूर्ण समीकरणों, विलासमय मदहोशी के साथ ।
-सतीश
16 Dec, 2020
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