भोर तक

      

 भोर तक पहुँचने के पहले

प्रकृति को

अँधेरे से गुजरना होता है।

 

फिर भी, वह

ओस-कण के रूप में 

प्रार्थना के अर्घ्य-जल चढ़ाती है,

जाती हुई रात के ह्रदय को 

नमी देती  है। 


और, भोर

रात की कथा-मीमांसा में 

अपने आप को खर्च नहीं करती,

वह विहान-गीत गाने-गुनगुनाने-फैलाने में

धुन-मस्त रहती है;

अपने वर्ण, अपने रव के विन्यास को,

अपने चरित्र की संहिता, विस्तार को 

सारे जग को सौंपने में 

लीन रहती है।

वह रात्रि की कर्म-प्रथाओं पर 

सिर नहीं धुनती,

अपने रूप-शिल्प को सजाने-सँवारने में

लगी रहती है।


पूरब अकुलाता नहीं

पश्चिम की विधि-शैली, भाव-निष्ठा पर;

वह अपने क्षितिज पर 

जागते हुए सूरज को

दूरगामी लालवर्णी शक्ति से भर कर

उत्सुक-उद्दीप्त बनाने में,

अनवरत ऊपर उठाने में

जुता रहता है।



सतीश, 

24 Jul, 2021


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