सूरज और दीप-ज्योति


 सूरज, 

तुम आते हो बड़े क्षितिज पर,

आसमान में हो उठते-चढ़ते ! 

पर, मैं बैठती हूँ धरती पर,

छोटे-से-छोटे द्वार, देहरी पर, 

अट्टालिकाओं से झोपड़ियों तक, 

मान्य से सामान्य तक, 

जलती हूँ, उजलती  हूँ।


मुझे प्राची-पश्चिम का भेद नहीं,

उत्तर-दक्षिण का ज्ञान नहीं; 

कोई अतिशय ताप नहीं,

तिलमिलाहट, तपतपाहट नहीं ;

भोर हो, या साँझ, 

दिन हो या रात,

मैं जलती ही रहती हूँ। 


अँधेरों से मैं नहीं छिपती,

उनसे मुँह कभी नहीं मोड़ती;

अमा का व्यक्तित्व 

चाहे जितना भी घना हो, 

मैं उसकी छाती पर 

जलना नहीं भूलती! 


तुमको हिचक होगी 

मुझ तक आने में,

पर, तुम चाहे जिधर रहो,

मैं पूजा की थाली में, 

तेरी वेदी तक आती हूँ! 



अपनी माटी, अपनी बत्ती पर टिककर

अपनी अस्मिता का बोध लिए,

सभ्यता-संस्कृति की 

अपरिमित, अमिय, अप्रतिहत आभा लिए 

शिवरूपा, सुंदररूपा, सत्यरूपा, 

मैं उज्ज्वलता की बाला हूँ;

दीपों से दीपों को सजाती,

मैं दीप-श्रृंखला, दीपों की माला हूँ;

जीवन की गति और विराम को

राममय, रामलय करती

मैं दीपावली हूँ!


हे सूर्य-देव,

मेरे अस्तित्व के उल्लास-पर्व के आने के बाद ही 

आता है तेरा त्योहार! 

यही है धर्म-प्रकृति का व्यवहार;

जानते हो,

दीपावली से छठ तक का 

है यही शीलबद्ध , सहज मन-प्रक्रम ! 


-सतीश 

Nov 6, 2021. 



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