पापा

जीवन के सौ-सहस्र गात हों,

मूल, मूल्यों की असली सौग़ात हो,

कर्म हो या धर्म,

उलझन हो या सुलझन,

इनके गीत जब मैं रचता-गाता हूँ,

वे गीत आपके ही होते हैं! 


पथ नहीं, सही पथ हो,

मर्यादा की डोर छूटे, टूटे नहीं,

प्रतिशोध की प्रवृत्ति-मनोवृत्ति 

जीवन का, जीवन की मूल क्रिया का चरित्र नहीं हो,-

इनसे बँध-बँध कर, 

इनसे जुट-जुट कर,

जब-जब जीवन के छोटे-बड़े पग मैं धरता हूँ,

वे पग आपके ही होते हैं!


जीवन में ‘जीवन’ प्रथम-प्रधान रहे,

राहें छोटी या बड़ी हों,

वे स्वप्नों से भरी-भरी हों,-

इनसे जुड़कर कोई स्वप्न जब मैं बाँधता  हूँ,

वे स्वप्न आपके ही होते हैं। 


भाषा, बिम्ब, कला या जीवन हो, -

वे सहज रहें, सरल रहें, सीधे चलें, 

जब-जब इन भाव-विभवों के साथ मैं होता हूँ, 

वे भाव आपके ही होते हैं! 


-सतीश 

20 Nov, 2021. 




टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बहुत बार

ऐ हिम, तुम मानव हो क्या?

क्या करूँ ईश्वर ?