बचपना


एक दोस्त ने कहा 

कि हो सके तो,

बचपना में झाँक कर देखो!  


तो, स्मृति-विस्मृति की तहों से 

गुजरते हुए लगा कि 

बचपना सही अर्थों में बड़ी उद्यमी होती है;

वह पग-मग उठाने से हिचकती नहीं, डरती नहीं;

वह स्वप्नों के साँचे नहीं खोजती,

भटकनों की तालिका नहीं रखती,

ख़ेमों-खाँचों-खंडों के तराज़ू पर

चढ़ती-उतरती नहीं रहती;

वह हर क्षण, हर याम 

नये-नये आयामों में अनायास 

अपने विन्यास को पाती रहती है! 


बचपना

चेतना के स्पंदनों,स्वरों, संगीतों को 

खुल कर जीती है,

वह आग्रह-दुराग्रह के व्यूह में नहीं रहती,

उसे कला या कविता बनने, बनाने की 

चिंता नहीं होती, 

वह जीवन में रहती है, जीवन को जीती है,

जीवन को हँसती-रोती, गाती-गुनगुनाती है,

वह जीवन होती है। 


अच्छा हो, हम

अमिय औषधि “बचपना” की दो-चार घूँट

हर दिन, हर क्षण पीते रहें;

मन के सहज, सरल 

विंदुओं, वृत्तों, विन्यासों को 

पाते, टटोलते, जीते रहें! 


सतीश 

20 Nov, 2021. 


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