अभिव्यक्ति की आधुनिक स्वतंत्रता
आज हमारी सोच,
सोच की स्वतंत्रता इतनी आधुनिक है
कि आतंकवाद में हम आदर्श ढूँढते हैं,
हिंसा में “मानवता” की कहानी पाते हैं,
देश-मर्यादा को सजगता की मानहानि बताते हैं,
राष्ट्रीय होने से परहेज़ करते हैं,
अन्तर्राष्ट्रीयता की अमोघ चूर्णशक्ति में,
उसके अनियंत्रित व्यसन-सेवन में
विश्व-हित का समस्त समाधान देखते हैं,
“सहनशीलता” के विराट, धन्य छंद गढ़ते हैं!
दूसरी ओर, आये दिन,
“समता”, “स्वतंत्रता” और “न्याय” की
श्रेष्ठ भंगिमाओं, उच्च घोषणाओं के बीच
किराये पर आये तर्कों के निष्ठुर प्यादे
जगह-जगह मुँह बाये खड़े होते हैं
नोंच-चोंथ के लिए, भोग-उपभोग के लिए;
सच से उनका सरोकार नहीं होता,
सही होने की चिंता नहीं होती,
वाद की अतिशय ग्रंथि उन्हें ग्रसित रखती है;
अपनी विभिन्न, व्यापक मुद्राओं में
विशुद्ध विकृतियाँ मनोहर कृतियाँ बन कर आती हैं,
शिक्षित, विकसित, सभ्य, उच्च, उर्वर मस्तिष्क की
निष्ठुर क्रिया-कलाओं की !
वे इतने स्वतंत्र, इतने उन्मुक्त होते हैं कि
विरोध के छोटे तर्क भी
उनकी सहनशीलता को बर्दाश्त नहीं होते,
जाने-पहचाने सच पर बनी कला की
प्रस्तुति भी उन्हें ग्राह्य नहीं होती !
“भोगे हुए यथार्थ” से कविताओं-कहानियों-कलाओं को
सींचने वाले,
प्रगति और शील के कलाकार, पुरोधा-समूह
हाल-फ़िलहाल के इतिहास के भी रक्तसिक्त तथ्यों को
धर्म की सच्ची युग-व्यथा से निरपेक्ष होकर
“धर्मनिरपेक्षता” की चादर से ढँकने को
उतारू हो जाते हैं!
यही प्रवृत्ति जारी रहती है
समस्त शक्ति-विधानों के साथ
राजनीति से लेकर व्यापार तक,
सामान्य आचार से भ्रष्टाचार तक,
कलाओं से लेकर कलाकारों तक,
प्रदेश-देश से लेकर विश्व-स्तर तक,
मन से लेकर मानसिकता तक!
यों, खड़ी मस्त रहती है,
अभिव्यक्ति की आधुनिक स्वतंत्रता!
⁃ सतीश
May 8, 2022.
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