बहुत बार जब कविता को तन देता हूँ, मन देता हूँ, पोशाक पहनाता हूँ, एक अनुभूति चुपचाप उठती है कि भीतर ही भीतर कुछ अर्द्धनग्न, नग्न सा हो गया; बहुत बार ! अंतस् के गहरे विन्यास में मानो कुछ उघड़ गया, उघड़ता गया, कुछ छिल गया, छिलता गया बार-बार, बहुत बार! क्या यह मनुष्य बनने की क्रिया है? मनुष्य बनते रहने की प्रक्रिया है? छुअन के चिन्ह बड़े होते हैं, पर, अछुअन के चिन्ह और भी बड़े होते हैं, बहुत बार! अभिव्यक्ति बड़ी होती है, पर, जो अनकहा रह गया, उसकी उमेठती ऊर्मियाँ और भी सघन, तीक्ष्ण होती हैं, बहुत बार! ⁃ सतीश मार्च 1, 2025
ऐ हिम, तुम मानव हो क्या? ऐ हिम, तुम अति श्वेत हो, शालीन, धवल हो, पर, इतने शीत हो ! सच पूछूँ, तुम मानव हो क्या? तुम हल्की पत्तियों से झरते हो, कोमल बोधों से बरस जाते हो, फिर, चट्टान से जम जाते हो, कठिन, कठोर हो जाते हो, तुम मानव हो क्या? तुम धरा पर लेटे रहते हो, पेड़ों पर बस जाते हो, छज्जों पर छा जाते हो, पर्वतों पर चढ़ जाते हो, अनुद्विग्न फैल जाते हो, तुम मानव हो क्या? ऊष्मा को पाकर तुम तरल हो जाते हो, पानी-पानी हो जाते हो, मन, बेमन बह जाते हो! तुम मानव हो क्या? शिलाओं से तेरे व्यक्तित्व पर यहाँ-वहाँ कुछ दाग पड़ जाते हैं, कुछ चिन्ह उग आते हैं, आने-जाने वाली कुछ प्रवृत्तियों के पग अनायास फिसल जाते हैं, सच बोलो न, तुम मानव हो क्या? -सतीश जनवरी 11, 2025.
क्या करूँ ईश्वर ? क्या करूँ, ईश्वर? ज्ञान पूरा है नहीं, भक्ति भी अधूरी ही है, संशय सघन बना रहता है, वो बार-बार डुबो देता है! पर, ऐसे में जो कुछ है, छोटा-बड़ा, लघु-अलघु, श्वेत-श्याम, निम्न-अनिम्न, न्यून-अन्यून, ग्रस्त-अग्रस्त, श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ, सिक्त-असिक्त, आसक्त-अनासक्त, कुंठा-अकुंठा- सबकुछ तेरे चरणों पर धर देता हूँ! क्षमा करना! नमन और नमन! -सतीश मार्च 9, 2025
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