सत्ता-भवन
सोचता हूँ, सत्ता का सुंदर, सुसंस्कृत,
माननीय धर्म-कर्म-भवन कैसा होगा?
निर्माण की प्रेरणाओं से भरी,
संस्कृति के अवयवों से आबद्ध
सत्ता-व्यवस्था की मेज़ों पर
तकनीकों के प्रेम-भाव में डूबा कम्प्यूटर हो,
और कुछ जनता के पास रोटी भी न हो!
बेचते रहें बड़े-छोटे दल अपनी टिकटें पैसों पर,
संसद में, प्रजातंत्र के संस्थानों में
श्रृगालों, व्याधों-वधिकों, चेतना के वधिरों की भीड़ हो!
स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्षों के बाद भी
दिल्ली अनमनी, सोयी-सोयी-सी लगती है,
वह आत्म-मुग्ध, खोयी-खोयी सी लगती है!
भारत-भूमि जनता को खोज रही है,
जनता भारत की आत्मा टटोल रही है!
जनता युग-संघर्ष में लगी है,
सत्ता के नायक समीकरणों में व्यस्त हैं!
सत्ताओं की नाकों के ठीक नीचे
दिल्ली दूषित है, रोगग्रस्त है,
संस्कृति की मानिनी यमुना
भयानक रूप से उपेक्षित, प्रदूषित है!
पढ़े-लिखे लोग, लेखक-पत्रकार-साहित्यकार,
कवि-कलाकार, गीत-ग़ज़लकार, कहानियों के ऊँचे प्रणेता,
लेखों-आलेखों, विवरणों-बहसों का
“शुभ लाभ” बटोरने में निमग्न हैं!
जनता का बड़ा हिस्सा अब भी लुंठित-कुंठित है, उधर,
सत्ता के कबूतर, शुतु्रमुर्ग शोख़ मुद्राओं में
चारों ओर राज रहे हैं, विराज रहे हैं!
दिल्ली रोज़-रोज़ नवेली बनने में लगी है,
भ्रष्टाचार की ख़ुशवंती सहेली बनने में लगी है।
कई बार क्षितिज सामने मनोरम दिखता है,
पर, भोर या तो आ-आ कर लौट जाती है,
या अपनी समग्र धुन में तल्लीन सचेतन नहीं दिखती।
जब तक यह होगा, यह होता रहेगा,
तब तक धर्म की चेतना आधी-अधूरी होगी,
सत्ता के भवन मूल्य-मर्यादा में ऊँचे नहीं रहेंगे,
उसके स्वप्न भरे-भरे नहीं होंगे,
उसकी संस्कृति माननीया नहीं होगी।
सत्ता विशेष हो सकती है,
वह कभी अशेष नहीं होती।
हाँ, यह भी सच है कि शेषता की चुनौती
हमें श्रेष्ठता की ओर धकेलती रहती है,
हममें सीमाओं के अतिक्रमण की आग जलाती है,
हमें उज्ज्वल, धवल, पुनीत बनाती है!
जब सत्ता जन हो, जनता हो, जननी हो,
सेवा हो, यज्ञ हो, हवन हो, आहुति हो,
तभी वह श्रेय की योग्य-शिला है,
ऊँचे भवनों की मान्य अधिकारिणी है!
अभीष्ट है कि श्रेष्ठ सभा-भवन में
सत्ता अपने अस्तित्व से विभोर नहीं हो,
वह हर दिन नई भोर हो जाये!
वह नकारात्मक अहम् नहीं हो,
हम की ओर प्रसन्न-चित्त बढ़ जाये, बढ़ती जाये!
हाँ, सत्ता पक्ष की हो या विपक्ष की,
वह सम्मोहन नहीं हो, वह मोहन हो जाये!
वह धर्म और कर्म से भरी-भरी हो,
प्रेम की अनुभूतियों से भीगी हो, साथ ही,
वह व्याल-मर्दन की कला में सक्षम भी हो,
सीमाओं के अस्तित्व को स्वीकार कर भी
वह कर्म के योग-भाव से अनुप्राणित हो,
वो अंश-दर्शन न हो, सुदर्शन हो जाये!
चाहता हूँ, ऐसी सत्ता ऊँचे, सुंदर भवन में हो!
-सतीश
May 28, 2023.
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