मन-शरीर, नौका पर

मन-शरीर, नौका पर


मन का शरीर 

जीवन-नौका के एक कोने में बैठकर

सूनेपन को ताक रहा थापरख रहा था


वर्षों-वर्ष आँखों से होकर गुजर गये

स्मृतियाँ हवा की तरह बह गयीं,

कहीं बस छूती हुईंकहीं हिलोरें जगातीं,

कहीं सहमीकहीं स्वर-सुर में खोयीं


मन में सूनेपन का विस्तार था,

सूनेपन में मन की विह्वलता थी।

चुप्पी ही सन्नाटे की बोली थी,

समय की काया में बसी हमजोली थी,

कहीं रूखी-सूखीकहीं भीगी-गीली थी। 


उधरचारों ओरजीवन-सरिता का जल

द्विधा में अटका पड़ा

अपनी गति भूल गया था


-सतीश 

May 30, 2023. 

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