मन-शरीर, नौका पर
मन-शरीर, नौका पर
मन का शरीर
जीवन-नौका के एक कोने में बैठकर
सूनेपन को ताक रहा था, परख रहा था!
वर्षों-वर्ष आँखों से होकर गुजर गये,
स्मृतियाँ हवा की तरह बह गयीं,
कहीं बस छूती हुईं, कहीं हिलोरें जगातीं,
कहीं सहमी, कहीं स्वर-सुर में खोयीं!
मन में सूनेपन का विस्तार था,
सूनेपन में मन की विह्वलता थी।
चुप्पी ही सन्नाटे की बोली थी,
समय की काया में बसी हमजोली थी,
कहीं रूखी-सूखी, कहीं भीगी-गीली थी।
उधर, चारों ओर, जीवन-सरिता का जल
द्विधा में अटका पड़ा
अपनी गति भूल गया था!
-सतीश
May 30, 2023.
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