समावेशी व्यंग्य !

  “समावेशी” व्यंग्य? 


एक बड़े कवि ने 

“समावेशी” भाव से प्रेरित और पीड़ित होकर

धर्म से “निरपेक्ष” व्यंग्य की आत्मा को 

पहेली से भरी चोली पहना दी और सह्रदय हो घोषित किया 

कि “राम, जो लोगों को प्राण देते हैं, की प्राण-प्रतिष्ठा” 

“धर्म से खिलवाड़” है! 


इस पर एक विशिष्ट वकील की अवशिष्ट बुद्धि 

ने “शिष्ट” घूर्णन गति पा ली;

व्यंग्य को तथ्य मानकर उसे तीक्ष्ण तेवर में उछाला,

पेशे की लीक पर चलकर अपने “विराट” ज्ञान को 

एक काला वस्त्र पहनाया, 

उसे एक अभ्यस्त कवच ओढ़ाया ! 


सचमुच, जब साहित्य के मन-मानस 

रावणों की विद्वता से मुग्ध हो

तर्कों की स्वर्ण-लंका बनाते रहें, तो,

“राम की प्राण-प्रतिष्ठा” 

विस्मय से भरी-भरी होगी,

वह खेल और खिलवाड़ ही लगेगी! 


सचमुच, जब व्यंग्य की विधा

राम के प्राण-हरण पर 

कभी अँखुआई नहीं, कभी जगी नहीं,

कभी व्यग्र नहीं हुई, कभी विचलित नहीं हुई,

तब वह “राम की प्राण-प्रतिष्ठा” पर

उद्वेलित क्यों नहीं होगी,

अतिरिक्त ( या रिक्त? ) संवेदनाओं से क्यों नहीं भीगेगी?


और, सुनियोजित रूप से प्रायोजित, आवेशित बुद्धि 

सुनहरी आपाधापी में लीन-विलीन क्यों नहीं होगी? 

“राम की प्राण-प्रतिष्ठा” हमारी और आपकी 

कुंठित बौद्धिकता के चरित्र का 

नैसर्गिक अनावरण नहीं है? 


-सतीश 

14 जनवरी, 2024

लंदन  











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