बहुत बार जब कविता को तन देता हूँ, मन देता हूँ, पोशाक पहनाता हूँ, एक अनुभूति चुपचाप उठती है कि भीतर ही भीतर कुछ अर्द्धनग्न, नग्न सा हो गया; बहुत बार ! अंतस् के गहरे विन्यास में मानो कुछ उघड़ गया, उघड़ता गया, कुछ छिल गया, छिलता गया बार-बार, बहुत बार! क्या यह मनुष्य बनने की क्रिया है? मनुष्य बनते रहने की प्रक्रिया है? छुअन के चिन्ह बड़े होते हैं, पर, अछुअन के चिन्ह और भी बड़े होते हैं, बहुत बार! अभिव्यक्ति बड़ी होती है, पर, जो अनकहा रह गया, उसकी उमेठती ऊर्मियाँ और भी सघन, तीक्ष्ण होती हैं, बहुत बार! ⁃ सतीश मार्च 1, 2025
वे पहले आतंक फैलाते हैं, खुल कर निृशंस हत्या करते हैं, फिर ,आतंक को आतंक कहने के बजाए मुद्दे को किसी अन्य विषय की ओर ले जाते हैं; जब उन्हें कठोर प्रति-उत्तर मिलता है, तो, वे अचानक मानवता की यादों से भीग जाते हैं, इतिहास और भूगोल की कथाएँ बताते हैं, पैनी भंगिमाओं वाली व्यथाएँ जताते हैं, सारे संसार को मानवता की चादर ओढ़ा देते हैं! सच तो यह है कि औरतों और बच्चों की ही नहीं, यदि हत्या कहीं भी एक व्यक्ति की भी हो, तो, वह अशर्त्त रूप से अमानवीय है; पर,पहले अरोक हत्या करना फिर,मानवता की कहानी पढ़ना, मुहब्बत के गीत, ग़ज़ल गाना, रोदन, क्रंदन, आँसुओं की माला पिरोना क्या मानवता है? मानवता की सच्चाई है? मन, मानव-जीवन की गहराई है? या, यह मानवता का सौदा है? आतंकवाद का परिचित औज़ार है ? आतंक का अनियंत्रित दाव - पेंच , उसकी अराजक विधा , बहुआयामी शैली , प्रणाली है ? सतीश Oct 13, 2023
मैं “तुलसी” की राम-कथा, मीरा की मोहन-वंदना बनी, सूरदास के “कन्हैया” की अपरिमेय, मोहक गति बनी! “कबीर” की अनगढ़ जीवन-शैली, मैं रहीम की अक्षय वाणी बनी, मैं रसखान की अमोल थाती, विद्यापति का शिवमय गान बनी! मैं “भूषण” की वीर-छवि बनी, बिहारी की रीति-कला में सनकर मैं सरस श्रृंगार, आगार बनी। भारतेंदु की सजग इंदु-ज्योति में मैनें देखा - “अँधेर नगरी, चौपट राजा, टके सेर भाजी, टके सेर खाजा”! फिर, मेरा मन चित्कार उठा - “आवहु भारत भाई, भारत-दुर्दशा न देखी जाई"। मैं “पंत” का प्राण-परिचय, प्रकृति का सुकोमल संचय “पल्लव” और “गुंजन” बनी ! प्रकृति के अवयवों को देख-देख कर मैं गा उठी - “सुंदर है विहग, सुमन सुंदर, मानव तुम सबसे सुंदरतम!” महादेवी के गीतों में बसकर मैनें भक्ति का अनोखा रूप पहचाना - “विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना”! प्रसाद की “कामायनी” बनकर सारे जग में मैं कह उठी - “तुमुल कोलाहल कलह में मैं ह्रदय की बात रे मन”! गुप्त की धर्म-चेतना से उठकर पूरे पुनर्जागरण-भाव ...
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