ये ज़िंदगी
ये ज़िंदगी
ये ज़िंदगी
न जाने कैसे कैसे
अपने तौर-तरीक़े की बनी,
कुछ अनबनी, कुछ अनमनी रह गई।
ये ज़िंदगी
कभी किसी काम की,
तो कभी बेकाम की हो गई।
ये ज़िंदगी
यहाँ-वहाँ मान, मूल, मूल्यों के अर्जन की
सुंदर सर्जन की, मन के मार्जन की,
तो कभी उनके विसर्जन की हो गई !
ये ज़िंदगी !
⁃ सतीश
सितम्बर 23, 2024.
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