चाँदनी, तुम मुझे-
चाँदनी, तुम मुझे-
चाँदनी, सच कहूँ, तुम मुझे भ्रष्टाचार सी लगती हो!
सजीली-धजीली, रंगीली, रसीली, छबीली, नशीली,
अपनी रूप-सत्ता में मग्न, सब जगह फैली ! -
धरती से आकाश तक,
उचकते वृक्षों से नन्हें पौधों तक,
खिले-खिले फूलों से, अँखुआती कलियों तक,
पगडंडियों से मुँडेरों तक,
पर्वतों की फूली छातियों से
समुद्रों के महाविस्तारों तक!
ऐ चाँदनी,
तुमको पाकर महासागर का विशाल ह्रदय भी
चंचल हो जाता है, लोल लहरों से भर जाता है!
ऐ चाँदनी, तुम तो
“लाल-सलाम” की “क्रांति-ज्योति” से लेकर
कुलबेटी-कुलवधू-राजपुत्रों के
कला-निपुण, सौंदर्यशील “पंजों” तक,
“लालटेन” की आभक्षण लौ-लीला से
कमल की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ज्योत्स्नाओं तक
मनोविनोद में इठलाती सी रहती हो!
सुना था, चाँदनी, तुम सूरज का ताप-तप लेकर आई हो,
रात के चरित्र में उजाला रखकर
सबों को गौरव से भरने आई हो,
पर, तुम तो अपनी ऊर्जा-ऊर्मियों में खोयी-खोयी रहती हो,
धरती की छटपटाहट को सोखते हुए बादलों से
गलबहियाँ करती रहती हो,
उन्हें पुचकारों, दुलारों से भरती रहती हो;
पंचायत से संसद तक,
वादों से दावों तक,
योजनाओं के गढ़े जाने से
उनके हर निरूपण-प्रक्षेपण तक,
घोषणाओं के सूने गर्जन-तर्जन से
टूटते पुलों व हाँफती, फैली सड़कों तक,
उमड़ती बाढ़ से चढ़ते सूखे तक,
विचारकों के बेताब विवरणों से
लेखकों-कवियों की कूकों तक,
उनकी निर्मोही हूकों तक, -
सबों के व्यक्तित्व में समाधिस्थ होकर
उन्हें अनवरत चंचल करती
खिलती-खिलखिलाती रहती हो!
ऐ चाँदनी,
कभी कटे हुए चाँद के साथ होकर
तुम खुल कर खेलने से हिचकती थी,
किसी कोने में शर्म से सिमटी हुई होती थी,
पर, अब सारी हिचक छोर कर तुम
पूरे आसमान में लहराती रहती हो,
बिना उद्वेग के, बिना कुंठा के !
चाँदनी, सच कहूँ, तुम मुझे भ्रष्टाचार सी लगती हो!
⁃ सतीश
अगस्त 11, 2025
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