माँ गंगा तुमसे हम बने, हमारा जीवन बना, हमारी संस्कृति-सम्पदा बनी, शहर बने, शहर की लम्बाई-चौड़ाई बनी, शहर का व्यास, विन्यास बना, फिर, तुम सिमट गई, सिमटती गई, सिमटा दी गई! माँ, तुम हमेशा स्वस्थ रहोगी, सेहतमंद रहना तुम्हारा कर्तव्य-धर्म है, यह सोचकर निश्चिंत भाव से सब दूषण हम तुमको सौंपते गये! मन के रेत बड़े होते गये, तेरे किनारों पर दिव्य अट्टालिकाएँ खड़ी हुईं, भव्य-दिव्य सड़कें बनीं, दिन-रात बड़ी-बड़ी महफ़िलें बसीं, उत्सवों-उल्लासों के नये चेहरे, नये मानचित्र बने, प्रगति की नई भाषाएँ, परिभाषाएँ बनीं! समीपता से तुझे देखना कभी जीवन था, धरती पर रहकर तुमको निहारना, छूना एक पवित्र अनुभूति! अब ऊँचे मान-भवनों से, दूर से तुमको देखना क़ीमती “दृश्य” कहलाने लगा, “ऊँचेपन” का अमूल्य बोध बन गया! तुम्हारे कूल पर जीवन तीक्ष्ण गति से भागने-दौड़ने लगा, गति-अगति का पता नहीं रहा, मति-अमति का बोध नहीं रहा! स्मृतियों-विस्मृतियों से टहलते-बूलते साँसें पूछती रहती हैं कि निर्माण के पहर से गुजरने के बाद माँ यों ह...