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यादें

यादें यादों की अपनी उँगलियाँ होती हैं, वे मन के अँधेरे फलक पर भी अपनी भंगिमाओं से कुछ गढ़ जाती हैं, कुछ कह जाती हैं!  स्मृतियों के अपने पर होते हैं, वे सरकते हुए भी, सहमते हुए भी दूरी को, दूरी के सन्नाटे को  कुछ स्वर, कुछ ध्वनि दे जाते हैं! -सतीश  सितम्बर 20, 2024 (फ़ोटो) 

श्रीराम

 श्रीराम  तेरे भाल के भव्य पटल पर  दिव्य जीवन-संघर्ष सहर्ष दमकता है,  तेरे नयनों की दृष्टि में सकल संस्कृति की संकल्प-शक्ति विहँसती है! तेरी पुतली के कंपन पर  मान-मर्यादा-छवि स्पंदित होती है,  तेरे कपोल पर प्रकृति की रंग-तरंग मचलती है!  तेरे तीर-धनुष की आकृति में  जीवन-परिधि घूमती रहती है!  सरयू के पावन तट पर  तेरी जीवन-लीला न्यारी बसती है,  उसके सप्राण जल में  सृष्टि सचेतन समाधि लेती है!  ⁃ सतीश सरयू नदी, अयोध्या  21 मई, 2024. 

महानगर

महानगर  महानगर में प्राय:  नगर महान् हो जाता है, लोग छोटे रह जाते हैं!  महानगर में प्राय:  नगर तन से फैलता जाता है, लोग मन से  सिकुड़ते जाते हैं!  महानगर में प्राय:  आम लोगों के लिए  घर की चौहद्दी छोटी हो जाती है, घरेलूपन और छोटा होता जाता है!  महानगर में प्राय:  गति की विधा जड़ हो जाती है, लोग जड़ से कट जाते हैं, चाहे-अनचाहे कटते रहते हैं। महानगर में प्राय:  सभ्यता कुछ अधिक व्यस्त हो जाती है, कई बार मन और मनुष्य हाँफने लगते हैं, हाँफते रहते हैं!  महानगर में प्राय: तेज-तर्रार मति हमें कुचलना चाहती है, मनुष्य और मनुष्यता बचने के दाँव-पेंच में जुटे रहते हैं!  महानगर में प्राय: महानगरीय बनने की आस में, निरंतर कुछ और दिखने के प्रयास में  मनुष्यता एक घटना हो जाती है, वह घटती ही रहती है!  - सतीश  सितम्बर 15, 2024. 

हिंदी

हिंदी हिन्दी है संस्कृत की बेटी, संस्कृति की वाहिका,  समाज के मन की भाषा  और देश की आत्मा!  वह अपने आप को थोपती नहीं, किसी दूसरी भाषा को छोटा नहीं समझती, वो विविध बोलियों के संग-संग प्रसन्न रहती है,  उसके ह्रदय का संसार विविधताओं से भरा है!  पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण को एकता के स्वरों, सुरों से बाँधती, रीति-रस्म, त्योहारों, पीड़ाओं, आचार-विचार, सूझ-समझ, चिंतन, मान्यताओं को  सहजता और गूढ़ता से अभिव्यक्त करती, लोरियों, कहावतों, मुहावरों, लोक-कथाओं से भरी हिंदी देश का जीवन है, जीवन की शैली है! वह देश का प्राण है, प्राण की साँस भी !  -सतीश  3 जुलाई, 2024. 

माँ गंगा

माँ गंगा  तुमसे हम बने, हमारा जीवन बना, हमारी संस्कृति-सम्पदा बनी, शहर बने, शहर की लम्बाई-चौड़ाई बनी,  शहर का व्यास, विन्यास  बना, फिर, तुम सिमट गई, सिमटती गई, सिमटा दी गई!  माँ, तुम हमेशा स्वस्थ रहोगी,  सेहतमंद रहना तुम्हारा कर्तव्य-धर्म है,  यह सोचकर निश्चिंत भाव से  सब दूषण हम तुमको सौंपते गये!  मन के रेत बड़े होते गये, तेरे किनारों पर दिव्य अट्टालिकाएँ खड़ी हुईं, भव्य-दिव्य सड़कें बनीं, दिन-रात बड़ी-बड़ी महफ़िलें बसीं, उत्सवों-उल्लासों के नये चेहरे, नये मानचित्र बने, प्रगति की नई भाषाएँ, परिभाषाएँ बनीं!  समीपता से तुझे देखना कभी जीवन था, धरती पर रहकर तुमको निहारना, छूना एक पवित्र अनुभूति!  अब ऊँचे मान-भवनों से, दूर से तुमको देखना  क़ीमती “दृश्य” कहलाने लगा, “ऊँचेपन” का अमूल्य बोध बन गया!  तुम्हारे कूल पर जीवन तीक्ष्ण गति से भागने-दौड़ने लगा, गति-अगति का पता नहीं रहा,  मति-अमति का बोध नहीं रहा!  स्मृतियों-विस्मृतियों से टहलते-बूलते साँसें पूछती रहती हैं कि  निर्माण के पहर से गुजरने के बाद  माँ  यों ह...

कविता का बनना, नहीं बनना (भाग-2)

कविता का बनना, नहीं बनना        (भाग-2) जीवन को ढूँढने में  तथाकथित रूप से भटक जाना, भटकते-भटकते नया मानचित्र गढ़ लेना, गढ़ने के प्रयास में एक यात्रा कर लेना,  यात्रा के ठौर, तरीक़ों से गुजर जाना कविता है!  अनुभूतियों से तप्त-शीतल होना, उन्हें उघाड़-उघाड़ कर उनसे भीग जाना कविता है; बहुतेरे भाव-धागों का कहीं छूट जाना, फिर, स्मृतियों में सहज लेटे रहना कविता है!  भावनाओं की भंगिमाओं को पढ़ना, पढ़ने की कोशिशों में  कभी डूब जाना, कभी उतरा जाना कविता है; विचारों, तर्कों को छीलना, कभी उनसे छिल जाना कविता है!  कभी आवश्यक, कभी अनावश्यक रूप से  राजनीति से टकराना,  टकरा-टकरा कर साहित्य की ओर मुड़ना, ये कुछ पलायन, कुछ अवगाहन जीवन की कविता है!  ⁃ सतीश  सितम्बर 1, 2024.