संदेश

सशब्द झुमका - कुछ यों !

“सशब्द झुमका” - कुछ यों !  जीवन की ये लड़ियाँ -  सुडौल, सुनहरी, स्वर्णमयी !  अभी-अभी आये वसंत की  पहली-पहली धूप सी  सीधी, सहज और सरल, सुदूर स्मृतियों से सलज्ज, तरल, ह्रदय की हल्की-हल्की ऐंठन को  धीरे-धीरे  मन-मुग्ध, मृदुल, मधुर भावों से  कंपित, तरंगित करती हुई, संचित मर्म को ललित कपोल पर सहर्ष अंकित, टंकित करती हुई,  स्वयं कंटकित, विस्मित होती हुई,  कभी उत्सुकता में हिलती-डुलती, कभी असमंजस में अटक जाती, अनायास यों ही अबोध रूक जाती, फिर, उत्फुल्ल होकर चंचल हो जाती,  अल्हड़ हो झूमती, झमकती, झनझनाती,  निरंतर ठिठोली करती,  रसमाती गति-मति, रीति-प्रवृत्ति, झुमके की!  ⁃ सतीश  फरवरी 9/10, 2025

दुनिया ने कहा तुम गुलाब हुए!

दुनिया ने कहा तुम गुलाब हुए!  जब काँटों से बिंध-बिंध कर तुम लाल-लाल हुए, दुनिया ने कहा तुम गुलाब हुए!  जब जीवन-धूप को पी-पीकर हँस-हँस कर तुम खिल उठे, और अंग-उमंग में, रग-रंगों में  मनभावन, सौंदर्यशील हुए,  सप्रेम लबालब हुए,  दुनिया ने कहा तुम गुलाब हुए!  ⁃ सतीश  17 फरवरी , 2025

राजनीति 2025!

राजनीति 2025!  राजनीति प्रजातंत्र को जो कुछ देती है, वो गुण है या अ-गुण?  सगुण या निर्गुण?  विष या निर्विष? विकार या निर्विकार ?  कुछ समझ नहीं आता।    ऊँची दिखने वाली राजनीति भी उचक-उचक कर ओछी रह जाती है, छोटेपन में ढुलक जाती है!  लुभावने वादों, सुहाने दावों के बीच  ग़रीबों के घोषित हित के लिए आतुर  राजनीति अपने चरित्र को  “नगद” बेचती रहती है;  वह “मुफ़्त” में गिरती रहती है, वोट के लिए, वोट के नाम पर, वोट की वेदी पर, पूरी वेदना के साथ!  चतुर आत्म-रोदन के साथ!  बेतरतीब, बिकाऊ क्रन्दन के साथ!  विवशताएँ राजनीति का शृंगार-रस होती हैं!  वह अपने गिरने को यथार्थ बताती रहती है; “गिरने” को समाज में उठने-उठाने का मंत्र मानती है!  राजनीति बन गई है जाति-धर्म की इकाई,  खूनी की स्याही,  निर्मम वध-पट्टी कसाई की।  “यह “महिला” का नया वोट-बैंक है”,  “यह इस-उस जाति की काट है”, -  ऐसे सुडौल, फुर्तीले, तर्क व अमोल ज्ञान-सागर में डुबकी लगा कर  पवित्र हुए ऐसे अमोघ विश्लेषण  समाज और व्यवस्था को, उ...

फरवरी

फरवरी फरवरी का पहला सप्ताह !  वसंत की पहली आहट!! पतली, भोली, छरहरी धूप!!!  धीरे-धीरे बह रही है हवा  वो अभी भी थोड़ी सर्द है,  पर, उष्ण होने को सहर्ष आतुर!  कल तक जो शीत था और अपनी ही ठंडक से  ठिठुर रहा था आत्म-ग्लानि में,  वह अँखुआ रहा है आज वसंत बनने को, तबीयत से खिलखिलाने को,  चहक जाने को, महक जाने को, लहक जाने को, मद-मोद में  कुछ बहक जाने को!   उर्वर सौंदर्य, वसंत की प्रकृति का!  ⁃ सतीश  फ़रवरी 17, 2025 

तुम !

तुम !  तुम भोर हो, भोर की कल्पना भी हो, तुम विस्तृत  क्षितिज हो, क्षितिज की उभरती संभावनाएँ भी हो,  तुम पहली-पहली धूप हो,  धूप की सुलगती, सुलगाती उष्मा-सुषमा भी हो,  तुम फुदकती चाँदनी हो,  चाँदनी की सुंदर थरथराहट भी हो,  तुम रागिनी हो, रागिनी की शील-संवेदना भी हो,  तुम दूर-दूर तक पसर जाने को आकुल फूल की महक हो,  महक की नैसर्गिक ललक,  एक बेचैन लहक भी हो!  तुम समय की अविरल कथा, कथा का अनासक्त सत्त्व, सत्व की चिर निनादित गूँज भी हो!  तुम!  ⁃ सतीश  फ़रवरी 23, 2024 

एक-दूसरे की ओर!

एक-दूसरे की ओर!  अलग-अलग दिशाओं में जगह-जगह अस्थि-पंजर से बिछे  बादलों को पढ़ लूँ, आँधियों की तबीयत को परख लूँ, हवा की सनसनाहट को छू लूँ!  तब, हो सकता है, यों ही कहीं मन को थामने के अनमने-अटपटे, खोये-उलझे सूत्र मिल जायें, हम एक-दूसरे की ओर मुड़ जायें!  #जीवन !  

बड़ी सभा है!

बड़ी सभा है!  बड़ी सभा है, बहुतेरे लोग हैं, सदस्य हैं, दर्शक हैं,  कोई भ्रम नहीं, कोई भ्रांत नहीं,  सब श्रेष्ठ, सब संभ्रांत हैं,  विद्वान हैं, पुरस्कृत हैं,  जमी हुई कुर्सियाँ, उठी हुई मेज़ें हैं, ऊँचे पायदान हैं, ज्वलंत स्तम्भ हैं,  सबों की योग्यता पर प्रजातंत्र की मुहर है; सभी तकनीकों से लैस हैं,  आधुनिक तंत्रों, ऊँचे मंत्रों के बीच  दावे हैं, वादे हैं, गर्जनाएँ है, आँसू हैं,  बहसें हैं, ब्योरे हैं, अमोघ विश्लेषण हैं,  तर्क-वितर्क हैं, आँकड़े, अंकगणित हैं,  कविता-कला है, कहानी है,  सब अपनों से, अपनत्व से लबालब हैं,  चारों ओर लाभ-हानि है!  हर संदेश में बार-बार साकार-निराकार देश है,  पर, देश में जनता बेचारी अलग है, अकेली है, अन्य है, अन्यमनस्क है; न जाने कहाँ भूली है?  -सतीश  मार्च 11/ मार्च 12 , 2025