सशब्द झुमका - कुछ यों !
“सशब्द झुमका” - कुछ यों ! जीवन की ये लड़ियाँ - सुडौल, सुनहरी, स्वर्णमयी ! अभी-अभी आये वसंत की पहली-पहली धूप सी सीधी, सहज और सरल, सुदूर स्मृतियों से सलज्ज, तरल, ह्रदय की हल्की-हल्की ऐंठन को धीरे-धीरे मन-मुग्ध, मृदुल, मधुर भावों से कंपित, तरंगित करती हुई, संचित मर्म को ललित कपोल पर सहर्ष अंकित, टंकित करती हुई, स्वयं कंटकित, विस्मित होती हुई, कभी उत्सुकता में हिलती-डुलती, कभी असमंजस में अटक जाती, अनायास यों ही अबोध रूक जाती, फिर, उत्फुल्ल होकर चंचल हो जाती, अल्हड़ हो झूमती, झमकती, झनझनाती, निरंतर ठिठोली करती, रसमाती गति-मति, रीति-प्रवृत्ति, झुमके की! ⁃ सतीश फरवरी 9/10, 2025