सागर की लहरों में ( भाग -दो)
सागर की लहरों में ( भाग -दो)  सागर की लहरों में मैंने  तुमको आते-जाते देखा, कभी जग-पीड़ा से मथित,  कभी भाव-रसा के आँचल सा फैलते देखा;  कभी संवेदना से सरकते,  कभी वेदना से विह्वल हो सरल, तरल होते देखा; कभी व्यक्तित्व की घूर्णियों में  संसार-सार के सम-विषम को गुंफित करते, कभी उन्हें सहर्ष प्रसरित करते देखा;  कभी हास-परिहास से निखरते, कभी सहज संवेगों में अमंद बहते, कंपित, कंटकित, तरंगित होते देखा;  कभी कंकर-पत्थर को विभोर करते, कभी सीप-शंख के वलय-लय में  चेतन भावों के मर्म को सहेजते देखा;  कभी लोल, ललित लहक-लीला बनते,  कभी लास-रास में ठुमकते, झूमते देखा!  कभी संत-सत्व में समाहित, रमते, कभी विलास-मोद में विहरते देखा;               सागर की लहरों में मैंने         तुमको आते-जाते देखा!  कभी सूर्य-किरणों के साथ छलछल, छमछम करते, कभी चाँदनियों को चुमकारते देखा;  कभी स्मृतियों में गहरे गोता लगाते, कभी विस्मृति में बेसुध खो जाते देखा; कभी समर्पण बन सविनय झुकते,...