संदेश

सागर की लहरों में ( भाग -दो)

सागर की लहरों में ( भाग -दो)  सागर की लहरों में मैंने  तुमको आते-जाते देखा, कभी जग-पीड़ा से मथित,  कभी भाव-रसा के आँचल सा फैलते देखा;  कभी संवेदना से सरकते,  कभी वेदना से विह्वल हो सरल, तरल होते देखा; कभी व्यक्तित्व की घूर्णियों में  संसार-सार के सम-विषम को गुंफित करते, कभी उन्हें सहर्ष प्रसरित करते देखा;  कभी हास-परिहास से निखरते, कभी सहज संवेगों में अमंद बहते, कंपित, कंटकित, तरंगित होते देखा;  कभी कंकर-पत्थर को विभोर करते, कभी सीप-शंख के वलय-लय में  चेतन भावों के मर्म को सहेजते देखा;  कभी लोल, ललित लहक-लीला बनते,  कभी लास-रास में ठुमकते, झूमते देखा!  कभी संत-सत्व में समाहित, रमते, कभी विलास-मोद में विहरते देखा;               सागर की लहरों में मैंने         तुमको आते-जाते देखा!  कभी सूर्य-किरणों के साथ छलछल, छमछम करते, कभी चाँदनियों को चुमकारते देखा;  कभी स्मृतियों में गहरे गोता लगाते, कभी विस्मृति में बेसुध खो जाते देखा; कभी समर्पण बन सविनय झुकते,...

यों, लालिमा लाल हो गई!

यों लालिमा लाल हो गई उस आँचल सी,  कहीं चढ़कर, कहीं फिसल कर, कभी चढ़कर, कभी फिसल कर, भावों के अंगो की अंतरंग उमंगों में रंग कर!  सुंदरता से फैले हुए ललाट सी, चहकती भृकुटी की आश्वस्त ज्या सी, आत्म-पुलक की धार लिए पुतलियों सी,  ललक से भरी आँखों सी, प्रसन्न सोच से भरे-उठे कपोल सी, ग्रीवा के सजीले मर्म-घुमाव सी, शील की सलोनी ऐंठन सी, मन की छवि में लय स्थितप्रज्ञ झुमके सी, अनकही कहानी को पढ़ने, छूने में अटके ओठों सी, ह्रदय-पटल के भव्य विस्तार सी,  आग और राग के दो पवित्र केन्द्रों सी, संवेदना और वेदना की पूँजीभूत अभिव्यक्ति सी,  सभ्यता और संस्कृति के दो अक्षों सी, मान और सम्मान के दो उन्नत टीलों सी, उचित और अनुचित के दो सहज द्वंद्वों सी, पुरातन काल से असंख्य रंगों में जलती  दो सनातन वर्तिकाओं सी,  देह और अदेह, वासना और प्रेम, आकार और निराकार, लोक और अलोक, सगुण और निर्गुण,  निगम और आगम, स्पृश्य और अस्पृश्य,  दृश्य और अदृश्य, पूर्णता और अपूर्णता,  कविता और अकविता, कहानी और अकहानी के  तन और मन के दो अपरिमित शून्यों सी,  उनकी अविभाज्य एकत...

सागर की लहरों में

सागर की लहरों में सागर की लहरों में मैंने  तुमको आते-जाते देखा, कभी हँसते, हिलोरें लेते,  कभी मन में सिमटते देखा !  कभी भव्य  उत्थान-पटल बनते,  कभी सुंदर भावों में फिसलते देखा;  कभी उफनते, कभी उमड़ते,  कभी बूँद-बूँद बन फहरते देखा;     सागर की लहरों में मैंने      तुमको आते-जाते देखा!  कभी खीझ से फेन बनते,  कभी चुप, कभी गूँजते देखा;  कभी सौंदर्य-उष्मा से सिहरते, कभी शील-प्राण से सकुचाते देखा;  कभी धूल-संग धूसरित होते, कभी सह्रदय उजलते देखा; कभी जीवन-रेतों को भिगोते, कभी चट्टानों से टकराते देखा; कभी सृष्टि की अनंत सत्ता में तेरी प्रज्ञा को समाधिस्थ देखा!           सागर की लहरों में मैंने         तुमको आते-जाते देखा!  ⁃ सतीश  सितम्बर 19/20, 2025 

समय, कुछ असमय सा ?

समय, कुछ असमय सा ?  इतिहास हो या भूगोल,  अति गहरी होती हैं, समय की यादें!  पर, फिर,  समय इतना असमय सा क्यों हो जाता है?  वो ठहरना भूल जाता है, क्षणों में पैठ कर उसको निहारना भूल जाता है,  वह रूक कर कुछ बोधना भूल जाता है!  क्यों करता है, समय ऐसा?  लगातार गति से उसे अपने आप पर चिढ़ नहीं आती?  स्वयं से कुछ नाराज़गी नहीं होती कि वह भी  कभी कुछ स्थिर मन का हो जाता, स्थितप्रज्ञ सा होता !  वो बहना भूलकर कुछ थम जाता,  कभी कुछ धीमा हो जाता, अपने आप को पढ़ लेता!  ⁃ सतीश  अगस्त 11/13/15, 2025

चाँदनी, तुम मुझे-

चाँदनी, तुम मुझे-  चाँदनी, सच कहूँ, तुम मुझे भ्रष्टाचार सी लगती हो!  सजीली-धजीली, रंगीली, रसीली, छबीली, नशीली,  अपनी रूप-सत्ता में मग्न, सब जगह फैली ! -  धरती से आकाश तक,  उचकते वृक्षों से नन्हें पौधों तक,  खिले-खिले फूलों से, अँखुआती कलियों तक,  पगडंडियों से मुँडेरों तक,  पर्वतों की फूली छातियों से  समुद्रों के महाविस्तारों तक!  ऐ चाँदनी,  तुमको पाकर महासागर का विशाल ह्रदय भी  चंचल हो जाता है, लोल लहरों से भर जाता है!  ऐ चाँदनी, तुम तो  “लाल-सलाम” की “क्रांति-ज्योति” से लेकर  कुलबेटी-कुलवधू-राजपुत्रों के  कला-निपुण, सौंदर्यशील “पंजों” तक,   “लालटेन” की आभक्षण लौ-लीला से  कमल की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ज्योत्स्नाओं तक  मनोविनोद में इठलाती सी रहती हो!  सुना था, चाँदनी, तुम सूरज का ताप-तप लेकर आई हो,  रात के चरित्र में उजाला रखकर  सबों को गौरव से भरने आई हो,  पर, तुम तो अपनी ऊर्जा-ऊर्मियों में खोयी-खोयी रहती हो,  धरती की छटपटाहट को सोखते हुए बादलों से  गलबहिया...

धागे - तरीक़े, बे-तरीक़े !

धागे - तरीक़े, बे-तरीक़े !  कई बार  जीवन के धागे उलझ जाते हैं, प्रेम में भी!  अनबुझ हो जाते हैं, उनके फेरे,  यहाँ-वहाँ लेटे रहते हैं, तिरछे-आड़े!  वे तरीक़ों से नहीं, बेतरतीबी से बँधे होते हैं, उनके रस्म-रिवाज अपने ही स्वत्व में खोये रहते हैं,  उनकी भंगिमाओं की आत्म-कथा चुप रहती है,  अपनी ही यादों में सुंदर आलस्य से पड़ी होती है!  पर, वे होते हैं प्रेम ही, होते हैं जीवन के सुंदर नेम ही!  सतीश  अगस्त 21/22, 2025 

ऊँघती ऊँचाइयाँ!

“ऊँघती ऊँचाइयाँ!”  ऊँघती, अनमनी ऊँचाइयों की हमें  ऐसी लत सी लग गई है, हर सुबह हँसते हुए सूरज को अधखुली #खिड़की से देखने की  आदत सी लग गई है - सतीश  2017