इसे मैं क्या कहूँ?
कभी कुंचित, कभी अकुंचित, कभी मन-वेणी, कभी मन-मुक्त इन कच-केशों को मैं क्या कहूँ? - कचनार कहूँ या कोई कशिश कहूँ? या इसे, महज़, एक उलझन कहूँ? या, जीवन-सौंदर्य का, सौंदर्य के संवेगों का एक सुरभित, सवाक्, समग्र संचय कहूँ? इसे मैं क्या कहूँ? कभी सीधे, कभी तिरछे, कभी कसे, कभी ढ़ीले नयनों के घुमावों को मैं क्या कहूँ? - रोक-टोक कहूँ? या, एक सरल तरलता में ऊभ-चुभ करती जीवन-नौका का सुंदर बहाव कहूँ? इसे मैं क्या कहूँ? कभी सिकुड़ती, कभी फैलती उसकी भृकुटी को मैं क्या कहूँ? - रस्साकशी-मया कहूँ? या सृष्टि-भाल को सँभाले किसी क्षितिज की सुंदर ज्या कहूँ? हल्की, पतली, नुकीली पुतलियों को मैं क्या कहूँ? मनधार कहूँ ? या जीवन-सौंदर्य के आर-पार का वरण करता हुआ आवरण कहूँ? इसे मैं क्या कहूँ? अर्धवृत्तों-से उसके ओठों को मैं क्या कहूँ? आसमान के चेहरे पर अर्धचाँद का आलोकित अंकन कहूँ? या, अपनी सुंदरता की अनुभूति से झुकी हुई मेपल की हल्की, नुकीली, पतली, लाल-लाल पत्तियाँ कहूँ? उसके अधर-पट पर ल...