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फूलों से शृंगार करूँ?

फूलों   से   शृंगार   करूँ ?  आतंक   का   मरघट   बसा   है , बड़े   युद्ध   की   वेला   है ; तर्क - वितर्क   की   घूर्णियों   में लिखने   वाले   हैं   बिक   रहे ; जीवन   निरीह   घूर   रहा , मानवता   है   रो   रही।   इधर ,  मैं   प्रेम   के   बंध   सजाऊँ ? प्यारी   साँझ   के   लाल   कपोल , मन   का   अभिसार   देखूँ ? पुतलियों   के   आर - पार तितलियों   के   साथ   उड़ूँ ? फूलों   से   शृंगार   करूँ ?  - सतीश   October 31, 2023. 

लतिका

लतिका   - - - लतिका  !  हर   दिन   हँस - हँस   कर उसने   धूप   पी   ली ; वह   जीवन   से   भर   गई , हरी - भरी   हो   गई।   वह   चहारदीवारी   पर   चढ़   गई , झुरमुटों   पर   सरक   गई , काँटों   पर   तन   गई , फूलों   के   साथ   महक   गई , जीवन   जी   गई !  चुपचाप ,  तन्मय ,  प्रसन्न  !  सतीश   Oct 28, 2023

युद्ध-प्रश्न

  युद्ध के प्रश्न सीधे नहीं होते, वे छोटे या सरल तो कभी नहीं होते।  युद्ध के पहले या बाद या युद्ध-काल में  सचेतन आत्मा रोती ही है; रक्त इधर गिरे, या उधर मानवीय आत्मा छोटी होती ही है।  पर, कई बार युद्ध हम पर थोप दिया जाता है, वह हमारे दरवाज़े पर निष्ठुर, निर्मम खड़ा रहता है, तब उससे मुँह मोड़ पिघलने को बेचैन मोममयी शांति की बत्ती जलाना अकर्मण्य हो जाना है, एक सवाक् पलायन है।  बहुतेरे युद्ध क्या हमें उन्हें चुनने या नहीं चुनने का अवसर देते हैं?  फिर, युद्ध के मैदान में अश्रु-ग्रस्त होना, शांति के सुंदर, मोहक छंदों को पढ़ना, आदर्श से भरी संवेदनाओं से अतिशय पीड़ित होना है कर्म से विमुख होना, समाज और विश्व के कल्याण-भाव को अस्त-व्यस्त करना!  मानवता को पराजित करना!! दुःख कहो या दुर्भाग्य, मनुष्यता की कहानी  बार-बार अटक जाती है प्रश्नों के इस भँवर में,  भिन्न-भिन्न निष्ठा और नियत के साथ एक बेसुध नियति की टेक पर।  -सतीश  Oct 21, 2023 सप्तमी, दुर्गा पूजा 

मानवता क्या है?

सोचता हूँ, मानवता क्या है?  पहले हत्या करना,  फिर, निर्दोषों को अपनी रक्षा का कवच बनाना मानवता है? पहले आतंक मचाना, फिर, बच्चों, महिलाओं की आड़ में छिपना मानवता है?  पहले युद्ध बरपा देना, फिर, चारों ओर, युद्ध-विराम के कलामय आँसू गिराना मानवता है?  पहले फ़साद करना, फिर, “शांति” के सुविधाजनक श्लोक पढ़ना मानवता है?  पहले घृणा से लबालब हरकतें करना, फिर, “प्यार” की कहावतों को ढूँढ लाना, उसे “दुकानों” पर, चाँदनियों पर, चौकों पर,  गीतों में, ग़ज़लों में, वक्तव्यों में, तर्कों में  पूरी योजना के साथ सशरीर खड़ा कर देना मानवता है?  सोचना चाहता हूँ,  ईमानदारी से, सच्ची निष्ठा से,  धर्म की आँखों में समय-काल को रख कर कि मानवता क्या है?  — सतीश  Oct 19, 2023. 

किरणें और पत्थर

 किरणें और पत्थर  - - भोर की भोली-भाली,विनम्र किरणें भी  पत्थरों को जगाना जानती हैं, उनमें उजाला भरना जानती हैं, रूखे-सूखे कलेजे को तप्त करना जानती हैं, शीत-भाव से ठिठुरते उनके मन को बड़ी सहजता से उद्दीप्त करना जानती हैं, ऊँचे,अनमने पाषाणों की जड़ता को तोड़ना जानती हैं!  -सतीश अक्टूबर 19, 2023. 

सत्कार

सत्कार        - - जब - जब   किसी   सत्   को   आकार   देता   हूँ , जब - जब   किसी   सत्य   के   साथ   हो   लेता   हूँ , जब - जब   किसी   सही   को   खुले   भाव   से   बिना   ओट ,  बिना   आग्रह   के   स्वीकार   करता   हूँ , लगता   है ,  सच्चे   अर्थों   में   लेखनी   का ,  मन   का , मानव   और   मानवता   का   सत्कार   करता   हूँ !  - सतीश   April 10, 2023. 

बिहार में सत्ता का न्याय

  बिहार   में   सत्ता   का   न्याय   टुकड़े   फेंक   कर   जनता   को   “ टुकड़े - टुकड़े ”  करने   की   अश्लील   राजनीति   चलती   रहती   है। तभी   तो   सत्ताओं   के  “ शीशमहल ”  बनते   हैं , ग़रीबों   के  “ मसीहा ”  बनते   हैं , पर, जनता   वहीं   की   वहीं   रहती   है।   पिछले   तीस   साल   में   बिहार   में   एक   भी   उद्योग   नहीं   खुला , शिक्षा   की   हालत   बुरी - से - बुरी   होती   गई , मज़दूरों   तक   का   पलायन   हुआ। सामाजिक   न्याय ! - सतीश   Oct 10, 2023

सूरज

सूरज  !  सूरज   उठ   रहा   है दूर   क्षितिज   पर   प्रकृति   के   एक   सुंदर   मर्म   सा , अँखुआते   हुए   फूल   सा ,  नींद   से   जगे   शिशु   सा !  तम   के   विस्तार   को   समेटता   हुआ   कर्म   सा , नये   देश   की   नई   भाषा ,  नया   रव ,  नया   स्वर   सा ! - सतीश   Oct 6, 2023. 

तेरी काया

तेरी   काया    - -  जीवन   एक   सजल   छाया   है , कुछ   और   नहीं ,  बस ,  तेरी   काया   है , - सहित - रहित ,  पूर्ण - अर्द्ध ,  सम्पूर्ण ,  समाहित  !  हर   ऋतु   है   तेरी   छटा   मनोहर ; एक   भावमयी   भंगिमा ,  अभिव्यक्ति   शील - शरीर   की , विविध   जीवन - रस   में   मज्जित ,  रूपायित !  हँसता   वसंत   हो   या   तपता   ग्रीष्म , या   मन - विभोर   भीगी - भीगी   वर्षा , हो   कहीं   पुलकित   शरद   या   मृदुल   हेमंत ,  या   अनजाने   अंतरंग   भावों   से   कंपित   शीत ,- सब   हैं   तेरे   मन   की   मर्ममयी   करवटें ; सुंदर   छंदों   में   बाँध   दूर   दूर   तक   ले   जाती   हैं   जीवन   की   वे   सहज ,  भोली   आहटें ...

आतंकवाद की शैली

वे पहले आतंक फैलाते हैं, खुल कर निृशंस हत्या करते हैं, फिर ,आतंक को आतंक कहने के बजाए  मुद्दे को किसी अन्य विषय की ओर ले जाते हैं; जब उन्हें कठोर प्रति-उत्तर मिलता है, तो, वे अचानक मानवता की यादों से भीग जाते हैं, इतिहास और भूगोल की कथाएँ बताते हैं,  पैनी भंगिमाओं वाली व्यथाएँ जताते हैं,  सारे संसार को मानवता की चादर ओढ़ा देते हैं!  सच तो यह है कि  औरतों और बच्चों की ही नहीं, यदि हत्या कहीं भी एक व्यक्ति की भी हो, तो, वह अशर्त्त रूप से अमानवीय है;  पर,पहले अरोक हत्या करना  फिर,मानवता की कहानी पढ़ना, मुहब्बत के गीत, ग़ज़ल गाना, रोदन, क्रंदन, आँसुओं की माला पिरोना क्या मानवता है? मानवता की सच्चाई है?  मन, मानव-जीवन की गहराई है?  या, यह मानवता का सौदा है? आतंकवाद   का   परिचित   औज़ार   है ?  आतंक   का   अनियंत्रित   दाव - पेंच ,  उसकी   अराजक   विधा ,  बहुआयामी   शैली ,  प्रणाली   है ?    सतीश  Oct 13, 2023  

हिंसा-अहिंसा

सच पूछो,तो,बहुआयामी होते हैं,  हिंसा के चेहरे और चरित्र! गहरे धँसे भी!  बम, गोले, बारूद ही हिंसा के साधन नहीं; कुकर्म और अकर्म भी हिंसा है!  तथ्यों की हत्या भी हिंसा है, तर्कों की तोड़-मरोड़ भी हिंसा है, विवरणों, विश्लेषणों का सौदा करना भी हिंसा है, नफा-मुनाफ़ा में रत बड़े नारे उछालना भी हिंसा है!  हमें परखना चाहिए,परखते रहना चाहिए  स्वयं अपने भीतर कि  हम हर दिन करते हैं कितनी और कैसी-कैसी हिंसा!  क्या हम अपने को ले जा सकते हैं “अहिंसा” की सच्ची पूजा की ओर?  -सतीश  Oct 9, 2023. 

दिवा-स्वप्न ?

दिवा - स्वप्न  ?  - तम   का   सहज   गति   से   सिमट   जाना , भोर   का   लाल - लाल   हो   जाना ,  चहचहाते   हुए   खगों   की   टोली   का   आकाश   की   नीली - नीली   चाहों   के   आर - पार   जाना , क्षितिज   के   तन   से   उत्सुक ,  उत्फुल्ल   सूरज   का   धीरे - धीरे   ऊपर   उठ   जाना  - दिवा - स्वप्न   है ?  या   स्वप्न   की   सहज   दिवा   है ? !  सतीश   Oct 4, 2023. 

चाँद कटा-कटा क्यों है

 शाम हो रही है!  चाँद दक्षिण में आकाश के मन पर ऊँचे टँका है,  पश्चिम के सूरज को  टकटकी दृष्टि से देख रहा है! जाते-जाते भी सूरज  अपनी कर्म-कृति में लीन लाल-लाल है।  सूर्य-विभा को ले कर भी, अन्तर्मन से उजल कर भी अब तक चाँद कटा-कटा क्यों है?  यों, आधा-अधूरा क्यों है?  कौन सी हिचक? कौन सा  द्वंद्व ?  कौन सी टोक?  कौन सी रोक?  पता नहीं,  अब तक चाँद कटा-कटा क्यों है?  सतीश  Oct 6, 2023 

हक़ और हक़दार

हक़   और   हक़दार   ‘ नीति ’  हो   या  ‘ तेज ’  “असली ”  गाँधी   हो   या  ‘ प्रताप ’!  हक़दार   भूखा - प्यासा   मसीहा   हो , हर   हक  “ चारा - सम्पन्न ”  हो , सत्ता   नियत   की   ग़रीबी   से   सम्पन्न   हो !  जनता   बेचारी   नियति   से   विपन्न   हो !  -  सतीश   Oct 3, 2023.  # बिहार  # भारत

दूरियाँ

प्रतीक्षा   में   भौंहें   काली   होती   गईं , पुतलियाँ   यादों   की   मोड़ों ,  मरोड़ों   पर सीधी - टेढ़ी   हो   गयीं !  ओठ   खुले ,  तो ,  खुले   रह   गये , दांतों   की   चमक   अनमनी   तीखी   हो   गई , आह   से   भर   गालों   की   तरलता   स्याह   बन   गई , जीवन - ह्रदय   की   बूँदें   चुपचाप   टपक   गईं !  दूरियाँ   ठहरना   भूल   सी   गईं !  - सतीश   Oct 3,2023.