तुलसीदास
हे कविप्रभु! हमने कविताएँ लिखी, तुमने संस्कृति लिख दी; हमने कविताओं में जगने की आस देखी, रखी, तुम जागृति बन गये; औरों ने काव्य के पौध उगाये, तुमने ‘तुलसी’ रोप दी! तुम किसी सत्ता के मनसबदार नहीं बने, सबों के मन में समा गये; जब धर्म निराश-हताश था, तुमने उसे राममय, संजीवन कर दिया। तुमने रचना को मर्म ही नहीं, कर्त्तव्य-कर्म, क्रिया-धर्म दिया; शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर को मर्यादा-मान का संकल्प-छंद दिया; तुम्हारी कविता-कला शिल्प नहीं, कल्प, कल्प-बोध हो गई, फिर, कल्पांतर, कल्प-आत्मा हो गई। प्रभु को समझते-परखते-गाते हुए, देखते-लिखते हुए, तुम एक काव्य-सत्ता ही नहीं, समाज-संस्कृति-जीवन-संप्रभु हो गये। -सतीश Oct 31, 2021.