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तुलसीदास

हे कविप्रभु! हमने कविताएँ लिखी, तुमने संस्कृति लिख दी; हमने कविताओं में जगने की आस देखी, रखी, तुम जागृति बन गये; औरों ने काव्य के पौध उगाये, तुमने ‘तुलसी’ रोप दी!  तुम किसी सत्ता के मनसबदार नहीं बने, सबों के मन में समा गये; जब धर्म निराश-हताश था, तुमने उसे राममय, संजीवन कर दिया।  तुमने रचना को मर्म ही नहीं, कर्त्तव्य-कर्म, क्रिया-धर्म दिया; शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर को  मर्यादा-मान का संकल्प-छंद दिया; तुम्हारी कविता-कला शिल्प नहीं, कल्प, कल्प-बोध हो गई,  फिर, कल्पांतर, कल्प-आत्मा हो गई। प्रभु को समझते-परखते-गाते हुए, देखते-लिखते हुए, तुम एक काव्य-सत्ता ही नहीं, समाज-संस्कृति-जीवन-संप्रभु हो गये।  -सतीश  Oct 31, 2021. 

ये पढ़े-लिखे लोग!

बड़ी संख्या में, पढ़े-लिखे लोग  भ्रष्ट नहीं होते,  सच कहिए, तो, वे भ्रष्टाचार होते है!  कई बार, वे  झूठ का भूगोल-खगोल गढ़ते हैं, चिंतन-दर्शन, तर्क-वितर्क, विवरण-विश्लेषण  की  निरंतर पैंतरेबाज़ी के साथ  वे ऐसे तारे-सितारे आसमान में बसाते हैं  जिनकी तेज-शक्ति  वसुधा को न तो भाती है, न लुभाती है। वे लगे रहते हैं, सूर्य-चाँद को रोकने-टोकने में; सूर्य को तिलमिलाता हुआ बताने में, चाँद को “अकारण शीतल” सम्बोधित करने में; उनकी कहानी होती है, हानि-लाभ की सघन आत्म-अभिव्यक्ति , सुंदर-सजीले समीकरण की मोहक मनोवृत्ति! और, अरे, कलाओं-कविताओं, गीतों-ग़ज़लों का क्या कहना?  वे भरी सभा में खुलेआम बिकते हैं; किन-किन की बोली-टोली पर, किन-किन की आँख-मिचौनी पर, वे नत-विनीत होकर, कभी मन से, कभी अनमने होकर जहाँ-तहाँ, बार-बार  सोते-जगते, उठते-गिरते हैं!  सतीश 30 Oct, 2021. 

ग़ुलामी, चाहे-अनचाहे!

ग़ुलामी के गुल बड़े मोहक होते हैं,   हम में से कुछ उनके “सुवास” में  बँधे होते हैं, बँधे रहना चाहते हैं,- आमूल, अनवरत, आजीवन!   ग़ुलामी के वृक्ष बड़े ऊँचे होते हैं,   विविध प्रकार, आकार, विस्तार के, बड़ी- बड़ी छाया वाले, बड़े-बड़े फल वाले, विशद जड़ वाले, गहरी जड़ता वाले; वे धरती को पकड़े रहना जानते हैं, आसमान की ओर उचकना भी जानते हैं; उनकी भंगिमाएँ, उनकी छवियाँ, शिक्षा-परीक्षा-मनोभावनाएँ,  अद्भुत कामनाएँ, ‘मनोहारी’ कुंठाएँ दूर-दूर तक हमें जकड़ती हैं-  चाहे-अनचाहे, समय-असमय!        -सतीश  Oct 26, 2021. 

बड़े-बड़े पेड़

ऊँचे पर्वत से घिरी घाटी से गुजरते हुए दिखा कि बड़े-बड़े, लम्बे-लम्बे पेड़ उनकी देह पर तने थे।  लगा कि इन्हें देखकर  विज्ञान कहता :  ये सूर्य की रौशनी की खोज में ऊपर जा रहे हैं !   फिर, मन के भीतर कहीं से आवाज़ आयी- कि इन्हें देखकर धर्म कहता - यदि इन पेड़ों ने अपने अंतस्तल में उज्ज्वलता-उष्णता का एक लघु खंड भी बसा लिया होता,  तो, संभवत:, उन्हें  ऊँचे से ऊँचे की होड़ में, बेचैन आपाधापी में शामिल नहीं होना पड़ता!  प्रकृति-कृति-संस्कृति कहती है  कि हम अपने मन के भीतर  विज्ञान और धर्म की यह बातचीत   होने दें, होते रहने दें!  -सतीश  Oct 22, 2021. 

शरद पूर्णिमा का चाँद!

कहते हैं, शरद पूर्णिमा का चाँद सोलहों कलाओं से पूर्ण होता है; सोलहों कलाएँ!  कलाएँ  जिनकी चाँदनी  आकाश से गलबाहियाँ-ठिठोलियाँ  करती रहती है; चारों ओर घूम-घूम कर, इतराकर-इठलाकर,  अपने तन-मन में तन्मय होकर, अपने आप को सजाती, निहारती, धवल करती रहती है। पर, ऐ चाँद,  एक छोटी-सी बात तुम भूल गये  कि आकाश से सटे रहने की कोशिशों में  कभी-कभी तुम पूरे होते हो, कभी कटे-कटे, कभी आधे,  कभी अधूरे होते हो!  अच्छा होता,  यदि तुम धरती के पास उतर जाते, हर मन में बैठ जाते, थोड़ी देर के लिए भी अटक जाते,  धरा की धूल, धुँआ से खेलते-हँसते उजल जाते,  कुछ क्यारियों को अपनी रौशनी से पाट देते,  वसुधा को तुम्हारी  अमिय-प्राणमयी चाँदनी मिल जाती!  ऐसे में, सचमुच, तुम पूर्ण हो जाते एक बार के लिए नहीं - हर दिन, हर रात के लिए, हर भोर, हर साँझ के लिए, हर माह, हर ऋतु के लिए, हर घर, हर मन के लिए! तुम पूर्णतर होते जाते तुम पूर्णतम हो जाते!  और, तब, शरद का होना  कुछ और स्पष्ट,  कुछ और स्वच्छ हो जाता!  ⁃ सतीश    ...

बेटी

बेटी संतति ही नहीं, संस्कृति होती है; वह सभ्यता का सचेतन तट होती है। वह माँ शारदा की वीणा, वादन होती है, माँ दुर्गा की शक्ति-पीठिका होती है। वह उषा की संकल्प-दृढ़ कांति, चाँद की शीतलता, रागिनी होती है।  वह समय-समय पर  तर्क-वितर्क, ज़िद की पिटारी होती है। वह युग-युगों से बनती-बहती, दादी-नानी, माँ-बहन, पत्नी की संचित  परम्परा-निधि की अगली छवि होती है।  वह स्वप्न का तेज, तरल, सुदीप्त प्लावन होती है, लेख्य-अलेख्य, निर्बन्ध कल्पना होती है! बेटी,  युग-युगों के अविरल संघर्ष की कथा मनोहर, नयी आयी भोर की धवल धूप,  जीवन का सुंदर, रक्ताभ सार होती है; जीवन की रूकी प्रवृत्तियों को, थकी परम्पराओं, झुकी मनोवृत्तियों को, कहीं अटकी, उदास मानवता को नित्य नूतन, चेतन, प्रसन्न गति और प्रसार देती  प्रकृति का सिद्ध संसार होती है!  -सतीश  Oct 2, 2021 & Sep 25, 2022. 

तेरी पलकों

तेरी पलकों की छाया में मुझको सपना साकार  मिला, तेरी आँखों में ढल कर, मुझको अपना श्रृंगार मिला।  तेरी काया के शिल्पों में जीवन को शत कल्प मिले, तेरी अनुभूतियों पर उठ कर, गिर कर जीवन को सुंदर सोपान मिले। तेरी जिह्वा की चंचलता में संबंधों के शूल-फूल खिले,  तेरी प्रकृति की लहरों पर  मन को अमित, अनवरत वाम-दक्षिण रूप, प्रेम-अप्रेम मिले।  तेरी बातों में आ-जा कर  मुझको अपना संसार मिला, तेरे अरमानों की धारों पर मुझको अपना विस्तार मिला!   -सतीश  Oct 2, 2021. 

हमारे सैनिक, हमारे शहीद

    नदियों के बहते रहने में, पर्वत के ऊपर उठने में, सागर के थमने-थिरने में, संकल्प तुम्हारा बसता है, सौगंध तुम्हारी बसती है।             पूरे भारत का रोम-रोम             तुम पर अर्पित होता है। उड़हुल के लाल तेवर में, सरसों की पीली मस्ती में, केसर के उज्ज्वल मानों में, मन-मान तुम्हारा रहता है, मूल्य-प्राण तुम्हारा रहता है।              पूरे भारत का रोम-रोम               तुम पर अर्पित होता है । पथ-पगों, पगडंडियों पर, मेड़ों-मेरूदंडों पर, खेतों में, खलिहानों में, फसलों में, दानों में, दान तुम्हारा रहता है, अवदान तुम्हारा रहता है।            पूरे भारत का रोम-रोम            तुम पर अर्पित होता है । गीता के कर्म-श्लोकों में तेरे जीवन की बाती है, गाँधी के चरखे पर चढ़ा हुआ हर सूत तेरे अर्पण की अर्जित थाती है।               पूरे भारत का रोम-रोम  ...

पसीना और पर्व

           पसीना में है सकर्मक सीना, स्वेद में सम्पूर्ण वेद,  है कर्म सबसे सुंदर मर्म, जीवन का यही उच्चतम धर्म! विराम नहीं, मंज़िल नहीं, लक्ष्य-विंदु नहीं, यात्रा ही जीवन का सबसे बड़ा पर्व है। और, उस यात्रा का आनंद सबसे पवित्र संहिता, सबसे बड़ा श्रेय, सबसे बड़ी प्राप्ति है।  -सतीश  Sep 29, 2021. 

जंतर-मंतर

जो फैल नहीं सकते, वे हमारा फलक बनाते हैं, जो अपने को गढ़ नहीं सकते, वे  कुम्हार बनें है, जो स्वयं को ढूँढ़ नहीं सकते, वे भविष्य की रेखाएँ बताते-बनाते हैं । प्राय:, विरोध सकर्मक नहीं, सकारात्मक नहीं, निरर्थक प्रतिरोध-अवरोध है, आलोचना में लोच नहीं; कहीं संवाद नहीं, चारों ओर, वाद-विवाद,  अराजक तर्क-वितर्क-निनाद है, अधिकांशतः, झूठ के ग्रह-तारे ‘सत्याग्रह’ में लीन हैं!  और, इधर,  हम स्वकेन्द्रित सोच से ग्रस्त हैं, अपने हेतु में नाहक अस्त-व्यस्त हैं। हमारे प्रजातंत्र का यही ग्रहण है, यही भूल-भूलैया, जंतर-मंतर है।  -सतीश  Sept 29, 2021. 

चाहता हूँ

चाहता हूँ, कर्म की रेखाएँ बनता, बनाता रहूँ, और, अपने आप को जताता रहूँ कि कला-शिल्पों  के लिए, कविताओं-कहानियों के लिए, फूलों-परागों की बाँहों पर अलसाने की बारी ख़त्म हुई, उन्हें सीधे-सीधे जीवन की धूप में तपने-जलने-धधकने दो। चाहता हूँ, एक आलोड़न बनता रहूँ, और, याद दिलाता रहूँ कि शासन-प्रशासन के नायकों,  व्यवस्था के अंग-प्रत्यंग-यंत्र-तंत्र के अहंकार-दम्भ के पुतलों, भरी दोपहरी में अंधेरा छाया है, तुम्हें नहीं ऊँघने-सुस्ताने दूँगा।  चाहता हूँ, एक खटखटाहट बनता रहूँ, और, बताता रहूँ कि सत्ता-व्यवस्था के मुँडेरों पर बैठे खाये-अघाये कबूतरों की चंचल चंचुओं की  नुकीली पैनी नोकों को   धरती की बेचैनी-बौखलाहट को चुगने दो, उनके शालीन-से लगते पंजों को  धरती की तपतपाहट पर सरकने दो। -सतीश  9th May, 2021. 

मैं चाँद हो न सका !

 कोशिशें मैनें की -  अपनी आकृति को गोल-मटोल कर लिया, फिर, सफेद पुताई कर ली, शुभ्र, श्वेत वसन भी ओढ़ लिया, व्यवहारगत, मानसिक व्यसन के साथ।  बात सिर्फ़ इतनी सी थी कि रात के शरीर पर बैठकर जल नहीं सका, उसके अस्तित्व के सामने उद्दीप्त हो नहीं सका, दूसरों से मिली रौशनी को भी औरों के लिए बाँट नहीं सका; यों, मैं चाँद हो न सका।  ⁃ सतीश  Sept 25, 2021. 

वे साँसें, वे बातें

 मेरी साँसें सच की होनी थी, पर, वे कभी लाभ की, कभी हानि की  होकर रह गईं, वे कभी तौल बन गईं, कभी तराज़ू बन कर रह गईं। बातें मैंने दिन बनाने की  थी, चर्चाएँ सूर्य गढ़ने की थी, लेकिन, वे रातें, रातों की सूचियाँ  गिनाने की होकर रह गईं।  इस बीच चाँद को देखता रह गया, भोली-भाली चाँदनी रात के कोने-कोने में  सरक-सरक कर उजल गई, अपने जीवन को सच्चे अर्थों में जी गई।  बातें तो मैनें नये-नये क्षितिजों को, नये-नये आयामों को रचने की थी, नित्य नूतन जीवन-नावों को बनाने की थी, लेकिन, वे इसके या उसके चुनाव की  होकर रह गईं।  बातें जीवन की, जीवन जीने की होनी थी, पर, वे क़िस्से, कविताओं, कहानियों की, उनके बनने-बिगड़ने की, उनके अच्छे-बुरे, उत्तम-अनुत्तम  होने की रह गईं ।   ⁃ सतीश ,  Sep 25, 2021. 

दिनकर

तुम्हारी कृतियों से हमने सीखा-  ‘प्रकाश की किरणें सीधी रेखाओं में गमन करती हैं’! हमने सीखा - सूर्य अस्पष्ट नहीं होता।  यह भी कि वह आकाश में क्रीड़ा करना जानता है, और,  धरती के क्रिया-धर्म को भी पहचानता  है। सूरज की सच्ची मेधा  उसकी उज्ज्वलता का ज्ञान-बोध नहीं, बल्कि, धरा की माटी-महक तक पहुँचने  की  उसकी अनवरत बेचैनी,  अमिट इच्छाशक्ति, उसकी अडोल नियत है। चारों ओर,  मेघों के चाहे कितने भी आवरण हों, सूर्य की किरणें  देश-दुनिया के पोर-पोर को भूलती नहीं,  वे लोक से अलोक तक आलोक-स्तम्भ का  पहरा खड़ा देती हैं, जीवन के पत्ते-पत्ते में लीन होकर  उन्हें हरा-भरा कर देती हैं,  सृजन-तूलिका से निकल कर  वातावरण की जड़ता को  तोड़ने में तुली रहती हैं। दिनकर की प्रकृति-ज्योति  वादों-ख़ेमे-खाँचों-क्यारियों में  नहीं अटकती, वह स्वतंत्र रहकर  समय-संघर्ष, जीवन-तत्वों से टकराकर भूगोल के खंड-खंड में फैल जाती है, इतिहास की सीमाओं का अतिक्रमण करती है, सहास-समोद रहकर, सरल-सहज बनकर।  ⁃ सतीश  Sept 23, 2021....

हिमालय

अपने शरीर पर विराट, तीक्ष्ण हिम को लेकर भी  तू सिहरता नहीं, ठिठुरता नहीं, सकुचाता नहीं, झुकता नहीं;  तू योग-भाव से आजीवन  निरत  है, उत्तुंग, उदात्त, धवल बने रहने में; तू उदासीन, निष्ठुर सत्ता नहीं, महिमा-विलीन व्यक्तित्व नहीं, कठिन जड़ इकाई नहीं, कर्तव्य-विमुख अवयव-अस्तित्व नहीं। उन्नत शीर्ष पर विश्व-नाथ को बिठाये, प्राण-ह्रदय में पावन गंगा को बसाये, विविध कंदराओं-कुंडों, घाटियों-चोटियों,  लघु-विशद श्रृंखलाओं को समेटे, सभ्यता-संस्कृति-धामों को धारते-पालते हुए, तू है प्रकृति-नियोजित, एकनिष्ठ-एकलय, है कर्म-प्रवीण, तू, शक्ति-संप्रभु, हे हिमालय!  ⁃ सतीश Sep 17, 2021. 

अटके आँचल पर

 कॉंटों में अटके आँचल पर सुंदरता निश्चिंत झूम रही है, मुस्काती-सी, शर्माती-सी, कुछ खुलती-सी, कुछ ढँकती-सी। अदृश्य बोध से बेसुध हुई अलकें  सुहाने आनन पर अनवरत गिरती-फिसलती-पसरती, हल्के-हल्के खुलते हुए ओठों की सीधी-टेढ़ी, आनंद-भरी आकृतियाँ  स्मृतियों के तन पर सशरीर फैलतीं, स्पष्ट भावनाओं से विभोर होकर  प्रेमिल पटों-पुटों को  उकसाती-उभारती-सी, हवाओं की प्रसन्न हिलोरों पर मन को बार-बार उमेठती, इतराती, बहती, उमगती-उमगाती-सी । -सतीश 27 August, 2021. 

भोर तक

        भोर तक पहुँचने के पहले प्रकृति को अँधेरे से गुजरना होता है।   फिर भी, वह ओस-कण के रूप में  प्रार्थना के अर्घ्य-जल चढ़ाती है, जाती हुई रात के ह्रदय को  नमी देती  है।  और, भोर रात की कथा-मीमांसा में  अपने आप को खर्च नहीं करती, वह विहान-गीत गाने-गुनगुनाने-फैलाने में धुन-मस्त रहती है; अपने वर्ण, अपने रव के विन्यास को, अपने चरित्र की संहिता, विस्तार को  सारे जग को सौंपने में  लीन रहती है। वह रात्रि की कर्म-प्रथाओं पर  सिर नहीं धुनती, अपने रूप-शिल्प को सजाने-सँवारने में लगी रहती है। पूरब अकुलाता नहीं पश्चिम की विधि-शैली, भाव-निष्ठा पर; वह अपने क्षितिज पर  जागते हुए सूरज को दूरगामी लालवर्णी शक्ति से भर कर उत्सुक-उद्दीप्त बनाने में, अनवरत ऊपर उठाने में जुता रहता है। ⁃ सतीश,  24 Jul, 2021

मेघ-मन

अंबर की छाती पर जैसे  मेघों का मन सरकता है, अंबर के आलिंगन में जैसे मेघों में रस भर जाता है; पर्वतों के भालों पर जैसे मेघों का मुख अलसाता है, शृंगों के पुचकारों से जैसे मेघों का स्पर्श छहरता है; घाटी की उष्मा से जैसे मेघों का रक्त उमड़ता है, खाईओं के बौराते वन से जैसे मेघों का तन लिपटता है; धरती की चाह-पुकारों से जैसे मेघों का रोम तड़पता है, धरती की मेड़-मरोड़ों पर जैसे मेघों का शिरा-सिरा  सिहरता है; प्रकृति के झकोरों से जैसे मेघों का अंग-उमंग चमकता है, दामन से दामन मिलने पर सृष्टि का वर्ण दमकता है; अंबर से धरती तक मानो सृष्टि का कर्म छहरता है, चोटी से घाटी तक मानो जीवन का पर्व लहकता है; जीवन और उसे जीने का मानो सुंदर सर्ग उमगता है। ⁃ सतीश 4th  July, 2017. 

श्रीकृष्ण

जीवन के स्याह-श्याम पक्षों को श्रेष्ठ शील-साहचर्य देकर  तुम स्वयं ‘कृष्ण’ हो गये ! श्रृंगार को संस्कृति-श्री देकर  तुम उसे मोहनमय कर गये; अपनी वंशी की धुन में   प्रेम और कर्तव्य का सार-संसार पिरो कर तुम सृष्टि-सारथी बन गये; जीवन-मरण, कर्म-उद्देश्य की  भाषा-परिभाषा के तत्व-गुण, परिधि रच कर तुम सुगेय, साकार,  निस्सीम ‘गीता’ बन गये; जीवन-चक्र के सात्विक दर्शन को  सतेज बाँध कर, हे देव,  तुम ‘सुदर्शन’ बन गये!  -सतीश  जन्माष्टमी, 2021. 

युद्ध और शांति

शांति के मधुमत्त, मदहोश कबूतर उड़ाने वालों!  विचारों से अधिक, धाराओं से सिक्त होने वालों!  मानता हूँ, सामान्यतः, सर्वोत्तम मापदंडों पर युद्ध अभीष्ट नहीं। लेकिन, समय-संदर्भ की पृष्ठभूमि में, संभव है, युद्ध अप्रबुद्ध नहीं हो, वह आवश्यक आवश्यकता भी हो जाये।  गीता के श्लोक  कल्पित शांति की स्वप्न-कंदराओं में नहीं रचे गये थे, वे जीवन और मन के  भीतरी-बाहरी युद्धों  के तारों को  पहचानते-सुलझाते हुए बने थे।  यह भी भान रहे कि संधि के सूत्र  यदि शक्ति के दमदार तत्वों  से जुड़े-गुँथे न हो, तो, वे प्राय: निरीह-निरुपाय होकर बिखर जाते हैं; युद्ध-क्षेत्र को पीठ दिखानी वाली मान्यताएँ न तो विश्व-व्यक्तित्व बनाती हैं, न विश्व-नेतृत्व बनती हैं।  इतिहास की त्वचा पर पड़े जय-पराजय के चिन्हों, दागों को पढ़ लो, भूगोल के आँसुओं, तापों-अनुतापों को परख लो, मानचित्रों-चौहद्दियों की प्राण-कथाओं को गुन लो!  अग-जग के  शांति-स्तूपों, जातक-कथाओं, सभ्यता-संस्कृति के मूल्य-प्राणों, गाँधी के चरखों, सूतों, तकलियों की रक्षा के लिए शक्तिधारिणी की साधना कर लो, म...

ऐ बादल

दूर-दूर तक हाँफते हुए, बेचैन—विचल भटकते हुए, तू किस प्रकृति-प्रक्रम में भूला है?  तू पूछ, मानसरोवर के शिव-ह्रदय से, हर हर बम के सात्विक नादों से, उन्नत धामों की उच्च गुफाओं से, उनके स्पष्ट साधना-स्वरों से;  धरती की भीषण आवश्यकताएँ हैं टोह रही, मर्यादाएँ हैं टोक रही, समाजी  बिजलियाँ तेरे ह्रदय को टटोल रही, वे कौंध रही, वे कड़क रही।  पर्वतों से मदहोश गलबाहियाँ छोड़ कर, आकाशीय आडंबरों से अठखेलियाँ बंद कर, तू जीवन का रस-तत्व समझ ले, अस्तित्व का मूल्य-भार पढ़ ले। शक्ति-ग्रंथि से विमुक्त होकर खुले मन से, उद्वेगरहित होकर  ऐ बादल, तू चारों ओर बरस ले!  - सतीश  21st August, 2021. 

फूल

रग-रग में जीवन-रंग की परत-परत को पहने, इठलाती पंखुड़ियों को साथ समेटे, दूर-दूर तक सुवास फैला देने को आकुल, मन-विभोर मकरंद लिए, अपरिमित भावों में डूब, वलय-लय में ढल कर शोख़ अदाओं को धारे, फूल  खिलता जाता है; जीवन-धूप को पी-पी कर खुलता-खिलखिलाता जाता है!       -सतीश      6th June, 2021

काश हम भी सावन होते!

सृष्टि की शिव-जटा खुली हुई है, सारे लोक में डमरू बजते हैं, त्रिशूल पर समग्र काल बैठा है, आदि नाद समवेत बोलते हैं।  मुक्त उमंग से बूँद-बूँद है छहर रही, गलियों में, सड़कों पर, मेड़ों पर, मुँडेरों पर, झोपड़ियों पर, महलों पर, तेज-तप्त समूहों, तम-तोमों पर, सम-विषम तलों पर, फूलों-शूलों, तृणों, तरूओं पर, शुष्क डालों, सेहतपूर्ण शिराओं पर, आहत, उन्नत जीवन-प्रदेशों पर। काश, हम भी इतने नादान होते, ऐसे ही सहज-सरल होते, ऐसे ही बहते, बरस जाते, ऐसे ही कुछ बहक जाते, काश, हम भी कुछ शिव-रूप होते, समन, साकार, सघन सावन होते !  -सतीश  15 August, 2021. 

सागर के मन में

लहरें   प्रसन्न भाव से गुजरती हैं  ‘भाटा’ होने के अनुभव से , और, सुयोग-संयोग के प्लावन से वे जानती हैं, ‘ज्वार’ बनना भी! लहरें बार-बार उठती हैं, बार-बार गिरती हैं, उन्हें चढ़ने-फिसलने का भाव नहीं, ऊपर-नीचे का ग्रास नहीं।  सजे-धजे, सुघड़ बने, या, बेडौल उछल चले?  बूँदों-बुलबुलों से मिले, या फेनिल विस्तार बने?  या, नैसर्गिक उमंग से उठकर सागर का उत्थान बने?  इसकी अभिलाषा-ग्रंथि नहीं, इसकी मंशा-व्यथा नहीं, इसकी चिंता-पीड़ा नहीं। हर स्वप्न को पढ़-लिख ले, हर डग-पग को नाप-भाँप ले, जीवन के ऐसे मूल्य-बोध नहीं! थमे हुए सागर के मन में  लहरें ऐसी मदमाती हैं; महाविराट समुद्र-शरीर में, साँसें उनकी लहराती हैं!  -सतीश   August 1, 2021. 

बादल और बिचौलिये

व्यवस्था के बिचौलिये बादलों-से होते हैं, वे धरती की ऊमस-छटपटाहट को आकाश तक पहुँचने नहीं देते। वे ज़मीनी सच्चाइयों की धूल,  धुँआ को बटोर, पूरे आकाश में सरक-सरक कर, अपने आप को सघन, नम बनाने में  जुटे रहते हैं,  बहुधा, वे धरा पर  बरसना भूल जाते हैं, वे सूरज की उष्णता को  स्वभाववश समेटते रहते हैं, फिर, कभी सूर्य के अस्तित्व-बोध को ही ढँक देते हैं।      -सतीश     5th July, 2021. 

माँ

माँ, तेरी तपस्या को सँजो कर  ग्रीष्म होता है जेठ-ज्येष्ठ ।  तेरे सृजन-स्वप्न छहरते हैं,  वर्षा की बूँदों-बूँदों में।  तेरी नियत को थाह-थाम बन जाता है, शरद-मन का आकाश  स्वच्छ-स्पष्ट। तेरे कर्त्तव्य-बोध से विमुग्ध हो हेमंत हो उठता है विनम्र-शीतल । तेरे व्यक्तित्व-शील के सम्मुख  निष्प्राण हो शिशिर ठिठुरता है।  तेरी मन-छवि को निहार-निहार कर मिलते हैं वसंत को, सुंदर गात, श्रेष्ठ चरित्र ।     - सतीश    4th June, 2021. 

आज की पत्रकारिता

आजकल, अधिकांशतः, व्यक्तिपरक आय विचारों-लेखों के आयतन बन जाती है, रोटी-स्वार्थों की चौहद्दी  पत्रकारिता की आकृति बनाती है।  प्रश्नों के चेहरे-चरित्र  प्रश्न-चिन्हों के कटघरे में आ जाते हैं,  तर्क-तथ्यों की भंगिमाएँ आदान-प्रदान की  कलाएँ बनी होती हैं, विचारों की शक्ति  व्यक्तिगत पूजा की आरती, निजी हेतु की बाँगें बन जाती हैं। बहुधा, प्रश्नों के शोर-भले बादलों में सच्चाई की नमी नहीं होती, बड़े-ऊँचे पर्वत-गण सच्ची निष्ठा से  विहीन होकर शुष्क हो गये हैं, वे बेतरतीब होकर कभी ऊबड़-खाबड़, कभी सपाट, कभी नुकीले हो जाते हैं; दूर-दूर तक फैले रेत में अब कैक्टस भी नहीं दिखते, मानसरोवर से लेकर मज़ारों तक मर्यादाएँ या तो ठिठुर रही हैं, या दफ़न हो रही हैं!  ⁃ सतीश  May 30, 2021. 

गाँधी

तुम्हारे चरखे, तुम्हारी तकली पर चढ़कर स्वतंत्रता घर-घर की ज्योति-शक्ति हो गई,  ‘सत्याग्रह’ को विश्व-क्षितिज मिला, राजनीति में कर्म-बोध को उच्च-उज्ज्वल चरित्र मिला। गाँधी,  तुम कुछ और गाँधी,  गाँधीमय लगते, यदि देश विभाजित नहीं होता, यदि सुभाष बोस तथाकथित रूप से लापता नहीं होते, यदि भगत सिंह की फाँसी का  तुम्हारे नेतृत्व में  सतेज विरोध होता, यदि वीर सावरकर  अपने घर में ही  परित्यक्त नहीं होते।          -सतीश  30 May, 2021. 

मकान और जमीन

सोचता हूँ, हमेशा मकान और ज़मीन क्यों चाहिए? शायद,  मन के भीतर को घर के बाहर जाकर भी  हमेशा एक घर चाहिए, किसी अस्तित्व को  कोई आधार चाहिए ?   सतीश  30 May, 2021. 

प्रार्थनाएँ

     हे ईश्वर, माना कि  हम गलत हो सकते, हम लघु-निम्न हो सकते, हम हेय हेतु-ग्रस्त हो सकते, हम भ्रमित हो सकते।  किंतु, हमारी प्रार्थनाएँ तो नहीं, प्रार्थनाओं की नियत तो नहीं, उनकी आत्मा तो नहीं।    - सतीश  19 May, 2021.   

एक भोली आस लिए

      एक भोली आस लिए, जीवन-अर्थों को साँस दिए, कुछ देख रही, कुछ बोध रही, कुछ हिगरा रही, कुछ खोज रही, कुछ साध रही, कुछ बाँध रही, कुछ पढ़ रही, कुछ पढ़ा रही, कुछ कहती-सी, कुछ अनकही-सी, आँखों में विश्वास-भरे विस्मय को धारे, एक मर्म-सिक्त, मन-मुक्त हँसी!   - सतीश   19 May, 2021. 

माँ के पास

जब-जब एक सृजन-शक्ति तुंग शीर्ष पर होती है, वह माँ के पास होती है, जब-जब संवेदनाएँ कर्म-धर्म के पुनीततम आयाम को छूती हैं, वे माँ के पास होती हैं। जब-जब जीवन के ख़ाँचों-फाँकों को पाटता हूँ, पाटता रहता हूँ, जब-जब संदर्भ-उद्देश्यों को विशद-पुनीत बनाता हूँ, बनाता रहता हूँ, मैं माँ के पास होता हूँ। जब-जब नन्हें-नन्हें बिम्बों में  जीवन के ऊँचे कर्तव्य-बोध धरता हूँ, धरता रहता हूँ, जब-जब छोटे-छोटे प्रयासों में बड़ी-बड़ी आसें, बड़े-बड़े स्वप्न भरता हूँ, भरता रहता हूँ, मैं माँ के पास होता हूँ। जब-जब अँधियारों के बीचों-बीच उजालों के वृत्त बनाने की कोशिश करता हूँ, करता रहता हूँ, जब-जब विपरीत परिस्थितियों को टटोलता हुआ उम्मीदों की लकीरें खींचता  हूँ, खींचता रहता हूँ, मैं माँ के पास होता हूँ।  -सतीश  9th May, 2021. 

धर्म और अर्थ

धर्म अर्थ के पंखों में  सात्विक रंग घोलता है, धर्म-चेतना अर्थ की धुरी को शालीनता पहनाती है, धर्म-सम्पदा अर्थ की उड़ानों को सुप्रज्ञा देती है! अर्थ के ऊँचे-विस्तृत आयाम धर्म-स्तम्भों की रक्षा करते हैं, उसके धारकों को  आत्म-विश्वास देते हैं, उन्हें हेय समझे जाने से रोकते हैं, “धर्म-परिवर्तन” को टोकते हैं, “धर्म-परिमार्जन” को प्रेरित करते हैं। जुते रहें धर्म और अर्थ जीवन-रथ में; सम्यक् विधान से वे  एक-दूसरे को  शक्ति-संबल, धवलता देते रहें। धर्म अर्थ का सारथी बना रहे!         -सतीश         19 April, 2021.        

शब्द-भंगिमा

जो अपनी सोच में अग-जग को साथ बाँधे चले, वह ‘सजग’ है; विचारों-भावों के विविध वर्णों को परस्पर सहने, और फिर  संयुक्त रहने का मनोयोग  सबों के लिए  अर्थ-भरा ‘सहयोग’ है; सम-विषम को अपने प्रसार में  समेटे रहना, सँजोये रखना सच्चे सत्व का ‘सार-संसार’ है!  बहुधा ‘प्रयोग’ में योग होते हैं। छोटे-बड़े संयोग , संभव है, कर्मयोग-बल से प्रेरित-मुदित होते हैं! प्रसंग के संग-संग आकर ही तथ्यों के  असली तत्व दिखते हैं। सच्ची आलोचना में, स्वभाववश, लोच बसी होती है!   - सतीश   25 March, 2021. 

सुबह-सुबह यह सूरज

किस तप में तप-तप कर, किस मन में खिल-खिल कर, किस भाव-क्षितिज से उठ-उठ कर, किस स्नेह-मर्म से सना हुआ  सुबह-सुबह  यह सूरज स्वर्ण-दीप्त हुआ। किन बातों में टहल-टहल कर, किन यादों में सरक-सरक कर, किस आस-साँस को थाम-थाम कर, किस राग-ज्वाला में जल-जल कर यह सूरज स्वर्ण-दीप्त हुआ। किस छुअन से ख़ुश-ख़ुश होकर, किस स्पंदन में सिहर-सिहर कर, किन तृण-तरुओं को ताक-ताक कर, किस भावना को परख-परख कर, किस सोच-मुद्रा में ठहर-ठहर कर, किन सौन्दर्य-रेखाओं पर फिसल-फिसल कर, किस कला-साँचे में ढल-ढल कर, यह सूरज स्वर्ण-दीप्त हुआ!  किस वेदना में लहक-लहक कर, किस संघर्ष में सुलग-सुलग कर, किन सर्द सलूकों को सह-सह कर, किन तम-तोमों से जूझ-जूझ कर, किन जीवन-तंतुओं पर बैठ-बैठ कर, किस मर्यादा पर चढ़-चढ़ कर, किस स्वप्न- बोध को सँजो-सँजो कर, किस उष्मा-ऊर्जा में पैठ-पैठ कर, यह सूरज स्वर्ण-दीप्त हुआ!        - सतीश           6 Feb, 2021. 

वीणा के तार

         वीणा के तार चुपचाप पड़े होते हैं, सुर  की संभावनाएँ लेकर; वे मौन होकर अपने आप को  साधते-बाँधते रहते हैं! उनका स्वत्व उन्हें  ऐंठता नहीं; वे विविध योग्यताओं के साथ  हँसते-खेलते रहते हैं, उन्हें उकसा कर,  उन्हें आलोड़ित कर। वे तान नहीं बनते, तानों में संचरित होते रहते हैं।        - सतीश  3 April, 2021

दिनकरजी

सिमरिया की माटी से,  या वहाँ रहती-बहती, उसे पालती, बहलाती, सहलाती माँ गंगा के तप-जल से? “रवि” की प्रखर किरणों से,  या सबों की मिली-जुली आशीष-आभा से? स्वच्छ चिंतन से, निगूढ़ सूक्ष्मता से, विराट् विचारों, तीक्ष्ण तर्कों से? छोटे-बड़े पैने बिम्बों से, युग-संघर्ष की पीड़ा से? समय-वक्ष के शील-साहस से?  पता नहीं, ऐ सरस्वती-पुत्र, तेरी भाषा में धार कहाँ से आती है?  (रवि सिंह उनके पिताजी का शुभ नाम है)       - सतीश      24 April, 2021.  दिनकरजी की पुण्यतिथि पर।

सृष्टि-प्रवृति

बहुत हुई रोदन की बातें, बहुत हुई आफ़त की घातें, तूफ़ान जीवन में खड़ा है, दुर्योगों की  मनमानी है। पर, धरती से आकाश तक प्रकृति के सातों रंग जगें, हमने भी यह ठानी है। सभी नकारों को याद रहे, हार-हार कर जीतता है मनुष्य प्रकृति की यही विस्मय-भरी अजर-अजेय कहानी है; सृष्टि का यही सत्य-विवेक, है सुंदर सत्व, शुभ शिव, अक्षय आनंद!       - सतीश          28 April, 2021. 

चिनगारी

    मानता हूँ, गहन अँधेरे की वेला है, दुख की जकड़ पीड़क, भयानक है। पर, अंतत:, मनुष्य की शक्ति, मनुष्यता की अभिव्यक्ति, सुसंयोग की नियति  उससे भी बड़ी,  उससे भी सघन है। रात चाहे जितनी भी अँधेरी हो, छोटी ही सही, पतली ही सही, तनिक ही सही, मद्धिम ही सही, एक चिनगारी आशा तो जगाती है, तम के सीने पर लहक कर - अमंद, अनश्वर, अप्रतिहत जाग-जाग कर, हिल-डुल कर । आइये, हम वह चिनगारी ढूँढते रहें, वह चिनगारी बनते रहें।  - सतीश 25 April, 2021.  ◦ 🌏⭐️

प्रश्न

 प्रश्न अपने मूल रूप में बुरे नहीं होते । प्रश्नों की  सभ्यता होती है, प्रश्नों के  चरित्र होते हैं, प्रश्नों की  नियत होती है। संदर्भों की करवटों पर ये, स्वभाववश,  अपने आप से भी पूछते हैं,  पूछते रहते हैं, प्रश्न!    - सतीश    3 April, 2021. 

सन्नाटे की ध्वनि

रात के बीचों-बीच  एक ध्वनि उठती है, मन के भीतर; वह शोर नहीं मचाती, दूर से आती है, बहुत दूर तक जाती है,  जाना चाहती है; मन को खंगालती रहती है, आती-जाती, उठती-गिरती।  ये सन्नाटे की ध्वनि!      - सतीश  3 April, 2021. 

पानी-बेमानी

मानता हूँ भाई, ग़रीबों के आँसू  निरर्थक पानी होते हैं! साथ-साथ  यह भी जानता आया हूँ  कि अमीरों के कहकहे  अक्सर बेपर्द-बेमानी होते हैं।         - सतीश         3 April, 2021.