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सशब्द झुमका - कुछ यों !

“सशब्द झुमका” - कुछ यों !  जीवन की ये लड़ियाँ -  सुडौल, सुनहरी, स्वर्णमयी !  अभी-अभी आये वसंत की  पहली-पहली धूप सी  सीधी, सहज और सरल, सुदूर स्मृतियों से सलज्ज, तरल, ह्रदय की हल्की-हल्की ऐंठन को  धीरे-धीरे  मन-मुग्ध, मृदुल, मधुर भावों से  कंपित, तरंगित करती हुई, संचित मर्म को ललित कपोल पर सहर्ष अंकित, टंकित करती हुई,  स्वयं कंटकित, विस्मित होती हुई,  कभी उत्सुकता में हिलती-डुलती, कभी असमंजस में अटक जाती, अनायास यों ही अबोध रूक जाती, फिर, उत्फुल्ल होकर चंचल हो जाती,  अल्हड़ हो झूमती, झमकती, झनझनाती,  निरंतर ठिठोली करती,  रसमाती गति-मति, रीति-प्रवृत्ति, झुमके की!  ⁃ सतीश  फरवरी 9/10, 2025

दुनिया ने कहा तुम गुलाब हुए!

दुनिया ने कहा तुम गुलाब हुए!  जब काँटों से बिंध-बिंध कर तुम लाल-लाल हुए, दुनिया ने कहा तुम गुलाब हुए!  जब जीवन-धूप को पी-पीकर हँस-हँस कर तुम खिल उठे, और अंग-उमंग में, रग-रंगों में  मनभावन, सौंदर्यशील हुए,  सप्रेम लबालब हुए,  दुनिया ने कहा तुम गुलाब हुए!  ⁃ सतीश  17 फरवरी , 2025

राजनीति 2025!

राजनीति 2025!  राजनीति प्रजातंत्र को जो कुछ देती है, वो गुण है या अ-गुण?  सगुण या निर्गुण?  विष या निर्विष? विकार या निर्विकार ?  कुछ समझ नहीं आता।    ऊँची दिखने वाली राजनीति भी उचक-उचक कर ओछी रह जाती है, छोटेपन में ढुलक जाती है!  लुभावने वादों, सुहाने दावों के बीच  ग़रीबों के घोषित हित के लिए आतुर  राजनीति अपने चरित्र को  “नगद” बेचती रहती है;  वह “मुफ़्त” में गिरती रहती है, वोट के लिए, वोट के नाम पर, वोट की वेदी पर, पूरी वेदना के साथ!  चतुर आत्म-रोदन के साथ!  बेतरतीब, बिकाऊ क्रन्दन के साथ!  विवशताएँ राजनीति का शृंगार-रस होती हैं!  वह अपने गिरने को यथार्थ बताती रहती है; “गिरने” को समाज में उठने-उठाने का मंत्र मानती है!  राजनीति बन गई है जाति-धर्म की इकाई,  खूनी की स्याही,  निर्मम वध-पट्टी कसाई की।  “यह “महिला” का नया वोट-बैंक है”,  “यह इस-उस जाति की काट है”, -  ऐसे सुडौल, फुर्तीले, तर्क व अमोल ज्ञान-सागर में डुबकी लगा कर  पवित्र हुए ऐसे अमोघ विश्लेषण  समाज और व्यवस्था को, उ...

फरवरी

फरवरी फरवरी का पहला सप्ताह !  वसंत की पहली आहट!! पतली, भोली, छरहरी धूप!!!  धीरे-धीरे बह रही है हवा  वो अभी भी थोड़ी सर्द है,  पर, उष्ण होने को सहर्ष आतुर!  कल तक जो शीत था और अपनी ही ठंडक से  ठिठुर रहा था आत्म-ग्लानि में,  वह अँखुआ रहा है आज वसंत बनने को, तबीयत से खिलखिलाने को,  चहक जाने को, महक जाने को, लहक जाने को, मद-मोद में  कुछ बहक जाने को!   उर्वर सौंदर्य, वसंत की प्रकृति का!  ⁃ सतीश  फ़रवरी 17, 2025 

तुम !

तुम !  तुम भोर हो, भोर की कल्पना भी हो, तुम विस्तृत  क्षितिज हो, क्षितिज की उभरती संभावनाएँ भी हो,  तुम पहली-पहली धूप हो,  धूप की सुलगती, सुलगाती उष्मा-सुषमा भी हो,  तुम फुदकती चाँदनी हो,  चाँदनी की सुंदर थरथराहट भी हो,  तुम रागिनी हो, रागिनी की शील-संवेदना भी हो,  तुम दूर-दूर तक पसर जाने को आकुल फूल की महक हो,  महक की नैसर्गिक ललक,  एक बेचैन लहक भी हो!  तुम समय की अविरल कथा, कथा का अनासक्त सत्त्व, सत्व की चिर निनादित गूँज भी हो!  तुम!  ⁃ सतीश  फ़रवरी 23, 2024 

एक-दूसरे की ओर!

एक-दूसरे की ओर!  अलग-अलग दिशाओं में जगह-जगह अस्थि-पंजर से बिछे  बादलों को पढ़ लूँ, आँधियों की तबीयत को परख लूँ, हवा की सनसनाहट को छू लूँ!  तब, हो सकता है, यों ही कहीं मन को थामने के अनमने-अटपटे, खोये-उलझे सूत्र मिल जायें, हम एक-दूसरे की ओर मुड़ जायें!  #जीवन !  

बड़ी सभा है!

बड़ी सभा है!  बड़ी सभा है, बहुतेरे लोग हैं, सदस्य हैं, दर्शक हैं,  कोई भ्रम नहीं, कोई भ्रांत नहीं,  सब श्रेष्ठ, सब संभ्रांत हैं,  विद्वान हैं, पुरस्कृत हैं,  जमी हुई कुर्सियाँ, उठी हुई मेज़ें हैं, ऊँचे पायदान हैं, ज्वलंत स्तम्भ हैं,  सबों की योग्यता पर प्रजातंत्र की मुहर है; सभी तकनीकों से लैस हैं,  आधुनिक तंत्रों, ऊँचे मंत्रों के बीच  दावे हैं, वादे हैं, गर्जनाएँ है, आँसू हैं,  बहसें हैं, ब्योरे हैं, अमोघ विश्लेषण हैं,  तर्क-वितर्क हैं, आँकड़े, अंकगणित हैं,  कविता-कला है, कहानी है,  सब अपनों से, अपनत्व से लबालब हैं,  चारों ओर लाभ-हानि है!  हर संदेश में बार-बार साकार-निराकार देश है,  पर, देश में जनता बेचारी अलग है, अकेली है, अन्य है, अन्यमनस्क है; न जाने कहाँ भूली है?  -सतीश  मार्च 11/ मार्च 12 , 2025 

प्रकृति-कृति

प्रकृति-कृति  जब-जब अपने आप में खो जाता हूँ,  स्वयं को टोह लेता हूँ,  स्वयं को टटोल लेता हूँ,  स्वयं को कुछ पा लेता हूँ; जब-जब “मानचित्र” को भूल जाता हूँ, कुछ भटक जाता हूँ,  कहीं-न-कहीं नये मान,नये चित्र को, नये भूगोल को पा लेता हूँ; जब-जब कुछ फिसल जाता हूँ,  किसी सुंदर गंतव्य को पा लेता हूँ! यह प्रकृति है? या कृति ?  या प्रकृति-कृति ?  ⁃ सतीश  मार्च 17, 2025

भीतर के तम से

भीतर के तम से  - बाहर तर्कों की भीड़ लगाता रहता हूँ, अरोक बहस में अटोक पड़ा रहता हूँ, विवरण, विश्लेषण अनवरत जारी रहता है, युद्ध जारी रहता है; बात सच्ची तो तब होगी, बात सुंदर तो तब होगी,  शिवमय-शिवलय तो तब होगी जब अपने ही मन के फलकों पर छाये हुए घने तम को सीधी दृष्टि से देख लूँ,  थोड़ा ही सही पढ़-परख लूँ,  उसकी बनावट को, बुनावट को समझ लूँ,  हो सकता है, तो, एक लघु संघर्ष कर लूँ, कम-से-कम प्रतिरोध का क्षुद्रतम प्रयास भर कर लूँ!  ⁃ सतीश  मार्च 25, 2025

तुम प्रेम हो?

तुम प्रेम हो?  तुम प्रेम हो?  मुझे मालूम नहीं!  तुम्हें छूना चाहता हूँ,  पर, छू नहीं पाता, तुम्हें पढ़ना चाहता हूँ, पर, पढ़ नहीं पाता,  तुम्हें लिखना चाहता हूँ, पर, लिख नहीं पाता, तुम्हें देखना चाहता हूँ, पर, देख नहीं पाता!  तुम प्रेम हो?  मुझे मालूम नहीं!  ⁃ सतीश  मार्च 31, 2025 

नारीत्व का आत्म-बोध !

नारीत्व का आत्म-बोध !  मैं हूँ नंदन-वन की पवित्र कलिका, युग-चेतना के यज्ञ की प्रखर ज्वाला,  अदमित सपनों की अंतहीन छवि,  सृजन की सुंदरतम अभिव्यक्ति!  मरघट के क्रीड़ा-कंदुक,  अहंकारों, विकारों, वीभत्स सत्ताओं, अत्याचारों, प्रताड़नाओं के आसुरी तत्व सकल!  तुम सुन लो प्रकृति का यह अडिग चिंतन कि रोदन मेरा व्यक्तित्व नहीं, पराजय मेरा अस्तित्व नहीं!  मेरी संवेदना के सुर-स्वर अग-जग में चारों ओर छाये रहते हैं!  मेरे विराट आनन पर   जीवन के सब ऐश्वर्य उजलते रहते हैं, मेरे कानन-कुंडल में  सृजन और संहार समवेत स्पंदित होते हैं!  मेरी आँखों में आकर  युग के सारे स्याह-बोध भी  तरल-तीक्ष्ण सौंदर्य-अंजन बन जाते हैं; मेरी भृकुटी की वक्र भंगिमाओं से दुनिया के निकृष्ट पाप भस्म होते हैं,  मेरी पलकों में शक्ति के मर्म थिरकते रहते हैं, मेरी साँसों में अपराजेय काल-भाव सतत् बहते रहते हैं, मेरे अधरों पर जीवन के विशद चिन्ह बसे होते हैं, मेरी ग्रीवा के घुमावों में शिवा-सेव्या के तेवर झलकते रहते हैं!  मेरे ह्रदय-पटल पर  उदात्त करुणा, पीड़ा...

छल

छल  राष्ट्र को, राष्ट्र की अस्मिता को नहीं पहचानना, उसके साथ सौदा करना, भाँति-भाँति के बहुआयामी कुतर्क गढ़ना, विरोध के लिए विरोध करना, राष्ट्रीय हुए बिना अन्तर्राष्ट्रीय होना, राष्ट्रीय हुए बिना मानवीय होना का दावा करना एक आधुनिक छल है, छल की सुपरिचित विधा है!  ⁃ सतीश  अप्रैल 25, 2025 

तन से नहीं, मन से

तन से नहीं, मन से  जानता हूँ, तुम तन से परे हो,  तुम सरहद,  सरहदों की हदों के पार हो, हो सकता है इसलिए कि  तुम प्यार हो,  प्यार से भरा प्यार हो!  तुम्हारे हर शब्द को चूम लेता हूँ, तन से नहीं, मन से!  उसकी हर भंगिमा से लिपट जाता हूँ, उसके भावों में तैरता रहता हूँ, छुअन और अछुअन के चिन्ह खोजता रहता हूँ, निरंतर, अनवरत, अनथक, अरोक,  तन से नहीं, मन से।  या, फिर, सच कहूँ, तन से भी, मन से भी!  ⁃ सतीश  मार्च 31/अप्रैल 2, 2025

वासना और प्रेम

वासना और प्रेम  मैं वासना की रात हूँ ?  या प्रेम का शील-प्रात हूँ?  या बस जीवन हूँ, जीवन से सना  जीवन का शृंगार  हूँ?  उसका निमज्जित नाद हूँ?  सहज बोध-अबोध में लीन  ताल-धुन, लय, सुर-स्वर हूँ?  ⁃ सतीश  अप्रैल 4, 2025 

जो प्रेम में है

जो प्रेम में है जो प्रेम में है, वो कभी ख़ाली रहता है क्या,  रह सकता है क्या?  हर पट पर, हर पुट में  वो हमेशा भरा-भरा होता है!  हो सकता है,  वो रिक्तताओं से ही पूर्ण हो!  ⁃ सतीश  मई 22, 2025

वन , तुम कैसे हो?

वन , तुम कैसे हो?  वन, तुम कैसे हो?  अलग-अलग भाव-दशाओं में, भंगिमाओं में  तुम   “जीवन” में रह लेते हो, “मधुवन”, “उपवन” में बस जाते हो,   “सावन” में रम जाते हो, “चितवन” में ठहर जाते हो?  वन, तुम कैसे हो?  - सतीश  जुलाई 1, 2025 

प्रेम है ?

प्रेम है ?  प्रेम चुम्बन है,  या चुम्बन की सिकुड़ती-फैलती आकृति, उसकी छाप-माप, उसकी ध्वनि, उसका सुर-ताल-नाद, उनका अनवरत संचरण?  या उन सबों की अरोक यादें?  प्रेम स्पर्श है, या स्पर्श के स्पंदनों का मन में छा जाना, अनंत भाव-बोधों से छाये रहना?  प्रेम आलिंगन है, या आलिंगन का आकर्षण?  आकर्षण की अविरल अनुभूति?  अमंद, अंतरंग, आत्मीय, अविचल !  ⁃ सतीश  जून 20, 2025. 

हर आग को नमन मेरा !

हर आग को नमन मेरा !  मैं सौंदर्य की आग में गलता रहा,  वेदना की आग में जलता रहा,  करुणा की आग में बहता रहा,  संघर्ष की आग में सुलगता रहा,  कचोट की आग में तनता रहा,  हार की आग में  तपता रहा,  तप की आग में लहकता रहा,  कर्तव्य की आग में धधकता रहा!  हर आग को नमन मेरा !  ⁃ सतीश  मई 5, 2025 

सतह पर?

सतह पर?  “मैं सतह पर रहना नहीं चाहता,   पर, ऊपर उठ नहीं पाता! -    सकारण, अकारण!” -सतीश  मई 15, 2025

जब भी मैनें कुछ कहा

जब भी मैनें कुछ कहा  तुम्हारे बारे में जब भी मैंने कुछ कहा, लगा कि जैसे कुछ छूट गया, कुछ ख़ाली हो गया,  जैसे ह्रदय-मानस ने आकर्षण का कलेजा खो दिया!  या फिर मन रिक्तताओं से भर गया !  बात की हर मोड़ पर, मरोड़ पर मैं जैसे कुछ कह गया कुछ अपने आप को, कुछ तुमको;  कुछ कहते-कहते छूट गया, कुछ कहने के पहले फिसल गया,  कुछ कहने के बाद खो गया!  कहना और नहीं कहना  एक दूसरे के विलोम हैं?  या परस्पर पूरक हैं?  ⁃ सतीश  मई 15, 2025

शून्य-अशून्य क्या है?

शून्य-अशून्य क्या है?  हाँ, शून्य-अशू्न्य क्या है?  चेतन, अवचेतन और अचेतन प्रवृत्तियों का ऊभ-चुभ करते रहना, उनका उठना-गिरना, उनकी उथल-पुथल -  ये शून्य के अवयव हैं?  सब शून्य में समाहित, शून्य से संधिबद्ध हैं?  शून्य का जो सप्राण भाव है,  वही जीवन-सार है, प्रसार है, संसार है?  शून्य का व्यक्तित्व कैसा है?  कुंठाएँ, हमारी उन्मादी उड़ानें,  जग के सौंदर्य-असौंदर्य, प्रश्न-प्रतिप्रश्न,  रोर-शोर, सारे रव,  रवविहीनता का  विस्तार,  जीवन का प्रक्षेपण, उसकी परिधि, उसकी आकृति, फिर , उसका आकारहीनता की ओर बढ़ जाना, आकर्षण-विकर्षण की शाश्वत घूर्णियाँ,  सृजन के छंद, विसर्जन के बंध, योग का आरोहण, भोग का अवगाहन, जीवन की संत-दृष्टि, वसंत-अनुभूति !  सब शून्य हैं, शून्य के सक्रिय, सजीव, सहज हिस्से हैं? !  सतीश मार्च 22/ मार्च 26, 2025

उजाले आना चाहते हैं!

उजाले आना चाहते हैं!  उजाले आना चाहते हैं, थोड़े में नहीं, पूरे में, पूरेपन के साथ ! - वे फुदकना चाहते हैं,  वे चहकना चाहते हैं,  तन में सरकना चाहते हैं, मन में लहकना चाहते हैं, वे गाना-गुनगुनाना चाहते हैं!  पर, खिड़कियाँ खुली नहीं हैं, किवाड़ें बंद हैं, मन सोया है, तन खोया है!  उन्हें खोले कौन?  वे खुलें कैसे?  उन्हें जगाये कौन? उन्हें जगायें कैसे?  -सतीश  अप्रैल 20, 2025

सौंदर्य है!

सौंदर्य है!  सौंदर्य है, शृंगार के भावों की  पत्तियों, फूलों-कलियों, भौरों को, पुतलियों, पुचकारों, पहेलियों को,  दुलारों, मनुहारों, अभिसारों, गुंजारों को विराट, उदात्त फलक दे देना!  सौंदर्य है, जीवन-चेतना के स्पंदनों को थाम कर आत्मा के स्वरों को पढ़ लेना, पढ़ते रहना,  अनंत में,  अनंत के मनोभावों में अवगाहन करना,  नये-नये क्षितिज को गढ़ते रहना, मढ़ते रहना!  सौंदर्य है, असहमति के प्रति सकारात्मक होना, अपनी क्रूरतम आलोचनाओं को  सह्रदय सुनने की मानसिकता रखना!  सौंदर्य है, जीवन की उलझनों को निर्विकार भाव से निरंतर सुलझाते रहना!  सौंदर्य है, स्वयं के विष को उदारता से सतत् पीते रहना!  सौंदर्य है, जीवन को अहंकारों की घूर्णियों के बीच  “अहम्” की ओट से निकाल कर “हम” के तुंग शीर्ष पर रख देना!  सौंदर्य है, महत्वाकांक्षाओं को  शालीनता का महत्व दे देना; घोर प्रतिद्वंद्विता के बीच भी मर्यादा के मानकों को ऊँचा बनाये रखना ! सौंदर्य है, ग्लानि और गर्व से परे, असंकीर्ण सीमाओं के पार देश के चरणों पर  कोमल-कठिन कर्तव्यों के श्रे...

जीवन में जीवन का श्रृंगार करूँ!

जीवन में जीवन का श्रृंगार करूँ!  चाहता हूँ, जीवन में  जीवन को सच्चा आकार दे दूँ !  द्वन्द्व, द्वेष, ग्लानि, कुंठा से दूर जा कर  जीवन का जीवन से सत्कार करूँ !  मान-सम्मान, अपमान से परे  जीवन में जीवन का शृंगार करूँ!  सतीश  नवम्बर 28, 2023

पता जीवन का लिख देना

पता जीवन का लिख देना  भावों की सीधी-टेढ़ी मेड़ों पर,  यहाँ-वहाँ की आपाधापी, भूलों, चूकों पर  सफल-असफल बाती-थाती पर, तुम नाम जीवन का लिख देना, पता जीवन का लिख देना!  समय की धूप-धूलि पर, दिन, रात और गोधूलि पर, हर हँसी या चोट-कचोट पर  तुम नाम जीवन का लिख देना,  पता जीवन का लिख देना!  कोई चोट जीवन से बड़ी नहीं होती, कोई सफलता जीवन से सघन नहीं होती,  प्रशंसा या आलोचना सब बीच के पायदान हैं, जीवन स्वयं जीवन का सबसे बड़ा अवदान है!  हर गति-मति पर, हर प्रगति पर, हर सोच-शील पर, सार, संसार पर,  अनुभूतियों के हर पड़ाव पर,  हर वन पर, हर उपवन पर, हर रोक-टोक, रोदन पर, हर क्रोध-कलुष-क्रंदन पर,  हर प्रेम-नेम-क्षेम पर, हर वेग पर, हर संवेग पर, हर वंदन पर, हर चंदन पर, हर पूजा पर, हर आरती पर, हर मर्म-कर्म-धर्म पर  तुम नाम जीवन का लिख देना पता जीवन का लिख देना!  ⁃ सतीश/ अप्रैल 11, 12, 2025 

शिकायत

शिकायत  शिकायत किससे हो?  औरों से?  या अपनों से?  या अपने आप से?   समय की घूर्णियों में असहज लगता है, सकारात्मक होना; बहुत बार वह बेतुका लगता है!  पर, इसकी चिंता नकारात्मक नहीं?                            सच्चे कर्म से पलायन नहीं?                           निष्ठा का हनन नहीं?  ⁃ सतीश  अप्रैल 19, 2025. 

भोर से शाम तक, जीवन तक !

भोर से शाम तक, जीवन तक !  पहले, खिलती हुई, खेलती हुई, मुक्तमना, उन्मुक्तकेशी, आत्म-विभोर  भोर लाल-लाल होकर आई!  फिर,  चीड़ और ताड़ के लम्बे पेड़ो्ं के पार  दूर क्षितिज पर कुछ कहीं भूली, कुछ कर्तव्य में अटकी  शांतमना, धीरवती साँझ  जाते-जाते स्निग्ध लालिमा दे कर चली गई!  बीच में थीं,  सारी तपतपाहटें, तिलमिलाहटें, चिलमिलाहटें,  उष्ण-शीत भाग-दौड़, लघु-अलघु आहटें,  सारे रोर, शोर, घात-आघात, प्रतिघात, वाद-विवाद, ख़ेमे-खाँचे, अंतहीन तर्क-सुतर्क-कुतर्क, पैंतरे, पायदान!  बीचोंबीच थे  ये सारे तत्व, सारे अवयव हम उन्हें जीवन कहते हैं!  ⁃ सतीश  अप्रैल 18, 2025. 

रोटी सेंकना

रोटी सेंकना  रोटी को कभी इधर उलट दो, कभी उधर पलट दो, लोग कहतें हैं - रोटी सेंकना अद्भुत कला है!  एक पुरातन, पवित्र कला है!  बार-बार सुनता आया हूँ कि गोल-गोल रोटी बनाना  एक नैसर्गिक प्रतिभा है!  परम्परा है, नियति है कि  जलती रोटी है,  जलने से वह मुलायम हो जाती है, फिर उससे गहरी भूख मिटती है किसी की!  लोगों को भूख हर दिन लगती है, हर दिन रोटी सेंकी जाती है, रोटी का प्रारब्ध, भूखों का सौभाग्य  सब एकताबद्ध हैं, नियति-संबद्ध हैं! रोटी जानती है कि  सेंका जाना उसका धर्म है, उसकी जाति है, उसकी नियति है, परम प्रतीति है, चरम अनुभूति है, एकमात्र प्रकृति है! अहो भाग्य!  बस प्रार्थना करता हूँ कि  मैं रोटी बनाना सीख लेता, सेंकना सीख लेता!  भारत की जनता भी यह कहती होगी,  काश, वह अपनी प्रधान सेविका हो जाती !  ⁃ सतीश  अप्रैल 30, 2025 

दो-गले

“दो-गले”!  कभी-कभी सोचता हूँ जिसने “दो-गला” शब्द रचा होगा, वह शब्दकार आज कितना  निरीह, निस्सहाय, निरुपाय महसूस करता होगा।  आज हम दो गलों से नहीं, असंख्य गलों से बोलते हैं, अनंत बिकी निष्ठाओं से बोलते हैं!  ⁃ सतीश  मई 14, 2024 

डॉनर झील

डॉनर झील  हल्की, पतली, छरहरी धूप!  धरा को निहारता आसमान नीला-नीला होता गया,  बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े एक-दूसरे पर लेट गये,  कहीं-कहीं अलग-अलग सरकते रहे; स्वच्छ, पारदर्शी, नीले जल वाले झील में  अनवरत झिलमिल करती भाव-तरंगें; छोटे क़द के पहाड़ की हल्की-हल्की ढलान - जैसे पर्वत-मन धीरे-धीरे झुक कर  धरती को छू लेना चाहता हो!  हवा भोले भावों से भरी पर्वत-छाती से बार-बार टकराती, फिर, लहराती, फहरती, मचलती हुई  दूर-दूर तक घाटी के शरीर पर छा गई, उसके ह्रदय में उठतीं उष्ण हिलोरें  कुछ नरम हो गईं, आश्वस्त होकर कुछ ठंडी हो गईं!  झील की बाँहों की परिधि पर बसे छोटे-बड़े चीड़ की पतली-पतली डालियों पर जड़े हुए नुकीले पत्ते प्रसन्न स्पंदनों से भर गये!  सतीश जून 1, 2025 

दृश्य-अदृश्य?

दृश्य-अदृश्य?  सच्चे प्रेम की सच्ची अनुभूति  दृश्य है  या अदृश्य ?  वो तन की त्वचा पर रेंगती है, या मन के रग-रंग, रेशों में रहती है?  वो स्पृश्य है या अस्पृश्य?  वो तल में है, या अतल में?  प्रेम ( जो व्यक्ति, समाज, धर्म, दल या देश से हो) - वो जीवन की एकवर्णी प्रवृत्ति है,  या आग्रह-दुराग्रहों को सतत् माँजती,  खँगालती, धोती  एक बहुवर्णी, बहुआयामी निष्ठा?  ⁃ सतीश  मई 25, 2025

मई की दोपहरी

मई की दोपहरी  सैनफ्रांसिको में  मई का लगभग अंतिम सप्ताह!  किरणों की उष्णता से लथपथ, धूप में नहाई हुई दोपहरी!  हल्की ठंडक लिए बहती हवा, मर्म-भरी; लाल व गुलाबी गुलाब चहारदीवारी के आर-पार सुरभि फैला देने के उत्साह में उमगते, उचकते हुए,  मेपल की लाल-लाल पत्तियाँ  कुछ और लाल होती हुईं,  अनमने ताड़ के पेड़ स्वयं को सूनेपन में  खोजते, ऊपर उठते हुए,  चीड़ के पत्तों की नुकीली भावनाएँ  नई ऊर्जा से कुछ अधिक पैनी होती हुईं; यों, तीक्ष्ण-तप्त होती भंगिमाओं की जीवन-लड़ी !  ⁃ सतीश  मई 26, 2025. 

वो मुस्कान

वो मुस्कान  वो मुस्कान समय के पंखों सी फैल गई, फिर, स्वयं समय हो गई; वो साँस में बह गई, उसकी सह्रदय गति हो गई,  स्वयं साँस हो गई; वो आनन के विस्तार को टोहती रही,  स्वयं अपरिमेय आनन हो गई; वो रोम-रोम में भर गई, स्वयं रग-रोम हो गई; वो मन में रम गई, स्वयं मन हो गई; वो जीवन में बस गई, स्वयं जीवन हो गई!  वो मुस्कान !! -सतीश  जून 6, 2025. 

मैंने प्यार को

मैंने प्यार को  - मैंने प्यार को कभी ठीक-ठीक जाना नहीं, बस यों ही तेरी आँखों से उसे देख लिया; - उसकी लय में, उसके वलय में  घुल गया, फिसल गया, ढल गया; उसकी वर्तनी में जुड़ गया - कभी संक्षिप्त होते हुए,  कभी युक्त-संयुक्त होते हुए!  ⁃ सतीश  मार्च 10, 2025. 

तुम, माँ!

तुम, माँ!  तुम तन हो, तन के पार हो, मन हो, मन के पार हो, तुम सुंदरतम कल्पना हो, कल्पना के पार हो!  तुम घूर्णियों सी बेचैन  स्मृतियों के स्पर्शों की असंख्य परिधियाँ हो,  उन परिधियों के पार हो!  तुम चेतना हो,  चेतनाओं के पार हो, तुम युग-युगों की पुनीत धारणा-अवधारणा हो, उन धारणाओं, अवधारणाओं के पार हो, तुम प्रेम की श्रेष्ठतम छवि हो, समस्त छवियों के पार हो,  तुम सृजन का चिर नाद हो, सब नाद-निनादों के पार हो,  जीवन का परम सौंदर्य हो, सभी सौंदर्यों के पार हो, तुम चरम जीवन हो, जीवन के पार हो,  पवित्रतम प्रार्थना हो, प्रार्थना के पार हो!  माँ!  ⁃ सतीश  मई 29/ 31, 2025

तुम्हारी यादें

तुम्हारी यादें विह्वल बालक बना देती हैं मुझे  तुम्हारी यादें!  ज्ञान की जटिल जंजीरों से दूर  चंचल, अबोध, अपरिचित,  अकुंठित, अनावृत, अनुद्वग्नि, सहज, सरल, तरल,  मग्न, मज्जित, लीन, विलीन!  ⁃ सतीश  मई 30, 2025 

यों, लालिमा लाल हो गई!

यों, लालिमा लाल हो गई!  यों लालिमा लाल हो गई उस आँचल सी,  कहीं चढ़कर, कहीं फिसल कर, कभी चढ़कर, कभी फिसल कर, भावों के अंगो की अंतरंग उमंगों में रंग कर!  सुंदरता से फैले हुए ललाट सी, चहकती भृकुटी की आश्वस्त ज्या सी, आत्म-पुलक की धार लिए पुतलियों सी,  ललक से भरी आँखों सी, प्रसन्न सोच से भरे-उठे कपोल सी, ग्रीवा के सजीले मर्म-घुमाव सी, शील की सलोनी ऐंठन सी, मन की छवि में लय स्थितप्रज्ञ झुमके सी, अनकही कहानी को पढ़ने, छूने में अटके ओठों सी, ह्रदय-पटल के भव्य विस्तार सी,  आग और राग के दो पवित्र केन्द्रों सी, संवेदना और वेदना की पूँजीभूत अभिव्यक्ति सी,  सभ्यता और संस्कृति के दो अक्षों सी, मान और सम्मान के दो उन्नत टीलों सी, उचित और अनुचित के दो सहज द्वंद्वों सी, पुरातन काल से असंख्य रंगों में जलती  दो सनातन वर्तिकाओं सी,  देह और अदेह, वासना और प्रेम, आकार और निराकार, लोक और अलोक, सगुण और निर्गुण,  निगम और आगम, स्पृश्य और अस्पृश्य,  दृश्य और अदृश्य, पूर्णता और अपूर्णता,  कविता और अकविता, कहानी और अकहानी के  तन और मन के दो अपरिमित शून्यो...

जनता की मौत एक प्रक्रिया है!

जनता की मौत एक प्रक्रिया है!  आम लोगों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत दुर्घटना नहीं, एक-दो बार की घटना भी नहीं,  एक शाश्वत प्रक्रिया है प्रजातंत्र में; वह घटित नहीं होती, समय-समय पर सदेह अवतरित होती रहती है, वह घटती नहीं, बढ़ती ही रहती है!  वो क्रिया-प्रक्रिया राजनीति के हरेक “घट” को, घटक को, घाट को बेहिचक छूती गुजरती है!  इस बीच नेताओं के चिंतित वक्तव्य,  पत्रकारों की व्यग्र आपाधापी, लुकाछिपी,  विचारकों के मारक (कृपया मरणशील नहीं पढ़ें इसे)  तर्क-वितर्क-कुतर्क, विगलित विश्लेषण, जनता की “मुक्ति-यात्रा” की अर्थी के  पवित्र अवयव बन जाते हैं, बहुतेरे अर्थों से भरे, बहुआयामी सार्थकताओं से भरे!  हमारा आवश्यक कर्तव्य है कि  जनता की जनतांत्रिक हत्या में  अपनी-अपनी प्रतिज्ञाओं से बँधकर, अपने-अपने खूँटों से अटूट लिपट कर हम समाधिस्थ रहें,  सत्ता की परियों के अडोल सम्मोहन में  लिप्त-गुप्त-सुप्त रहें, मस्त-अलमस्त-व्यस्त रहें!  विशुद्ध, सात्विक, धर्मयुक्त, धर्म से निरपेक्ष  सच्चाई है कि  यह देश-भाव का दोहन नहीं,  धर्म-कर्म क...

हे मृत्यु-देवता !

हे मृत्यु-देवता !  हे मृत्यु-देवता!  मानता हूँ कि तुम सर्वशक्तिमान हो, तुम्हारी शक्ति अपरिमित है। पर, बहुत बार  तुम्हारी लीला अटपटी सी क्यों लगती है? तुम अति क्रूर क्यों हो जाते हो?  अपनी इच्छाओं को पूरा करने में  अतिरेक तक पहुँचते से लगते हो; क्या वह तुम्हारी अपनी मर्यादा का भंजन नहीं है?  मुझमें न तो बड़ा ज्ञान है, न महिमामय कर्म-धर्म, न सम्पूर्ण भक्ति, इसलिए क्षमा चाहता हूँ ;  पर, ये प्रश्न तो मन में कौंध जाते हैं; कौंधते रहते हैं!  -सतीश  जून 13, 2025 

कैसे लिखूँ ? क्या लिखूँ?

कैसे लिखूँ ? क्या लिखूँ?  कैसे लिखूँ? कलम से? या ह्रदय से?  या मन की अनछुई गहराई से?  या परिकल्पनाओं के परों से, उनकी आँखों से, उनके अधरों से?  उनकी पुतलियों की परछाइयों से,  उनकी बाँहों के हँसते हुए फैलाव से?  स्पर्शों के स्पंदनों से, या स्पंदनों के स्पर्शों से? या एक-दूसरे को सुलगाती उनकी घुली-मिली बेचैनी से? उनकी किलकारियों से, उनके कूजन से?  या माटी की महक से, उसकी जलन और तड़प से?  या वेदना और संवेदना के घनीभूत लेप से?  ग़रीबों की अपराजेय ग़रीबी से, या अमीरी के चिर-परिचित अहंकार से?  महान् नेताओं की चिंताग्रस्त, निष्णात नारेबाज़ी से?  उनके अंतहीन आलाप-विलाप से?  व्यवस्था की सुव्यवस्थित बदहाली से?  जनता की उपेक्षा की उनकी सुपरिचित कला से?  विद्वानों, विचारकों की संजीवनी  कही जाने वाली शाश्वत थोथेबाजी से, या रचनाकारों, कलाकारों की पुरातन कलाबाज़ी से?  तौल-तराज़ू पर चढ़ जाने के लिए हमेशा तैयार उनकी व्यग्र  प्रतिबद्धता से?  आतंक की कुत्सित ज्वाला से, या उसके विरुद्ध खड़ी संघर्ष-शक्ति से?  “वाद...

स्वर्ग दो हैं

स्वर्ग दो हैं  स्वर्ग एक नहीं, दो हैं, -  वे दो ह्रदय हैं, दो शरीर हैं, दो धड़कनें हैं,  दो उज्ज्वल संज्ञाएँ, दो सार्थक विशेषण हैं,  वे तन और मन हैं,  वे शील-सम्बद्ध हैं,  वे आलिंगनबद्ध हैं!  ⁃सतीश  मार्च 31/ मई 24 2025